नवोत्पल गुरुवारीय विमर्श

 


Saturday, August 14, 2010

देश, परिवार, समाज

नवोत्पल पर हुई एक पुरानी चर्चा: 



अंकित ............The Real Scholar Aug 14 '10
Message #1
सौ में सत्तर आदमी फिलहाल जब नाशाद हैदिल पे रखकर हाथ कहिये  देश क्या आजाद है...?


प्रश्न तो कई दशक पुराना है ...पर उत्तर आज तक किसी ने नहीं दिया .......क्या इस पर नावोत्पल में कुछ चर्चा करना उचित होगा?

Shyam Juneja Aug 15 '10
Message #2
इस महत्वपूर्ण प्रश्न पर चर्चा मैं एक शिवसूत्र से करना चाहूँगा .."धी वशात सत्व सिद्धि.. सिद्ध स्वतंत्र भाव.."हमारे यहाँ गायत्री मन्त्र में भी "धी" की ही मांग की गई है ..पंजाब में "धी" शब्द का प्रयोग बेटी के लिए किया जाता रहा है.. शायद कहीं कहीं आज भी प्रचलित है ..और शायद स्त्री के सम्मान में कही गई एक शब्द की सबसे सुन्दर कविता है यह "धी" ..क्या है धी ? कृष्ण ने गीता में जिसे "व्यवसायात्मिका बुद्धि" कहा है..कृष्णमूर्ती इसे "सजगता" कहते हैं ... आम बोल चाल में हम इसे विवेक कहते हैं.. जब चर्चा चल ही पड़ी है तो लगते हाथ बहुत पहले" सारिका" में पढ़ी धर्म की वह परिभाषा भी उद्दृत कर दूं जो पांच दशकों के बाद भी मुझे भूली नहीं .."अनासक्त विवेक से समष्टि कल्याण के हेतु किया जाने वाला कोई भी कर्म धर्म है " यह सारी भूमिका इसलिए क्योंकि स्वतंत्रता को समझ पाना ही कोई इतना आसान नहीं है.. स्वाद लेना तो बहुत दूर की बात है.. दूसरी बात है "सत्व की सिद्धि की" धी वश में हो तब कहीं सत्व की सिद्धि हो पाती है जब तक सत्व सिद्ध नहीं होता तब तक स्वतंत्रता नहीं .. सत्व सिद्धि का अर्थ है व्यर्थता से मुक्त हो पाना ..बोझ से मुक्ति ..पल्ले रिज़क न बनदे पंछी ते दरवेश ...क्रमश

अंकित ............The Real Scholar Aug 15 '10
Message #3
श्याम जी बहुत ही अच्छी तरह से प्रराम्ब किया है आपने ...............कुछ आगे बढाइये बात को ..हम शीघ्र पढना चाहेंगे

Shyam Juneja Aug 21 '10
Message #4
प्रिय अंकित, कोई पल विशेष होता है, जिसमें कोई फ्लो चला आता है.. आपके मन में यदि कोई प्रश्न उठ रहा हो, उसे सामने रखोगे तो शायद चाबी लग जाये.. मेरे पास बना बनाया कुछ भी नहीं होता..स्वतंत्रता के संदर्भ में मुझे लगता है वृति के बारे में थोड़ी बात कर लें .. चलो शुरू से शुरू करते हैं ..एक आदमी क्या है ? एक मन +एक शरीर .. हम पहले मन को लेते हैं.. यह मन कैसे बनता है ? निश्चित रूप से क्रिया प्रतिक्रिया (stimulus and response cycle) चक्रों से मन निर्मित होता है.. शरीर निर्माण की प्रक्रिया भी लगभग यही है.. भूख लगी खाना खाओ.. प्यास लगी पानी पियो ..यह तो हुई शरीर के तल पर क्रिया प्रतिक्रिया का चक्र..मन के तल पर.. किसी ने गाली दी क्रोध आ गया.. और यही वृति है.. वृत्त की आवृति =वृति.. यही हर प्रकार के बंधन के मूल में हैं.. सरल शब्दों में वृति का अर्थ है आदत (sow an action you reap a habit sow a habit you reap your character sow your character you reap your destiny) हिंदुओं ने इस आदत का निरुपन विलक्षण ढंग से किया है उन्होनें आदतों के जमावड़े को कुण्डलिनी कहा है (that which is spiral).. बहुत विलक्षण प्रतीक हैं हमारे पास .. शिव परमात्मा क्यों हैं क्योंकि उन्होनें अपनी कुंडली खोल ली है और इन सर्पों को उन्होनें अपने गले का और जटाओं का श्रृंगार बना लिया है और परम स्वतंत्र यानि मुक्त हो गए हैं अब यह आदतों के सांप उनके वश में हैं ..भगवान विष्णु के संदर्भ में भी यही तथ्य है वे अपनी जागृत कुंडली को शेष नाग के रूप में व्यवहार में लाते हैं .. मैं फिर भटक गया बात वृति की हो रही थी.. महर्षि पतंजलि के योग दर्शन का पहला सूत्र है योगस-चित-वृति-निरोध यानि योग चित की वृतियों का के निरोध का नाम है ..वृतियों का यह निरोध (काबू पाना .. दमन नहीं) ही स्वतंत्रता है ..दुसरे शब्दों में योग यानि युक्त-चित ही स्वतंत्र है ..अब चर्चा चित को लेकर करनी होगी .. चित क्या है ? मन और चित में क्या अंतर है ? बहुत से प्रश्नों की परतें हैं जिनमें उतरना पडेगा यदि स्वतंत्रता को समझना है .. अब आपकी बारी
The Forum post is edited by Shyam Juneja Aug 21 '10

अंकित ............The Real Scholar Aug 21 '10
Message #5
बातें तो गूढ़ है और ऐसा होना अत्यंत स्वाभिक भी है ........परन्तु क्या भूखे पेटों को ये बात समझाई जा सकती है?बिल्कुल स्वतंत्रता दर्शन का ही विषय है क्यूंकि प्राणी के अस्तित्व के लिए तो केवल केवल "आहार भय निद्रा और मैथुन" की आवश्यकता है स्वतंत्रता के बिना भी प्राणी का अस्तित्व संभव है परन्तु क्या दार्शनिक ज्ञान किसी को भी स्वतंत्रता दिला सकता है ?

अब देखिये ना आज तो दो ही तरह के समाज हैं एक तो वो जिनकी ये आवश्यकताएं ही पूर्ण नहीं हो पाती हैं और दुसरे वो जो अपनी तृष्णा के लिए बाकियों की ऐसी आवश्यकताएं पूर्ण नहीं होनेदेते हैं |अब अगर कोई ऐसा व्यक्ति जिसने कभी भी भार पेट भिजन ही ना किया हो , अगर वो शिव मंदिर जाता है तो उसके लिए शिव कुंडली खोल कर गल्मे में डालने वाले "योगेश्वर शिव" नहीं अपितु "भोले बाबा" हैं जो की सापों तक को शरण देते हैं तो उनको भी भोजन देंगे |

भारतीय दर्शन ने इस बात को सबसे अछि तरह से समझा था तभी तो "ना जाने किस रूप में नारायण मिल जाये " भी कहा था परन्तु आज की दशा क्या है ...............आज तो भारतीय समाज भी उसी तरह के दो भागों में विभक्त हो चुका है ....जबकि उससे तो अपेक्षा थी की वो विश्वगुरु बनकर जगत को राह दिखायेगा |

और रबसे बड़ी बात ...........बुरी स्थिति उती दुखदाई नहीं होती है जितनी की गलत दिशा ....आज तो दिशा भी गलत ही है ..........और कोई भी किसी भी तरह की आशा भी नहीं दिख रही है .....


Govind Juneja Aug 22 '10
Message #6
प्रिय अंकित जी, ऐसा नहीं की आशा नहीं है, जब अँधेरा घना हो तो समझो लौ फूटने वाली है प्रकाश की हलकी सी किरण अँधेरे को चीर देगी और ऐसा ही समय अब आना है. शरीर की भूख ना गरीब की मिटती है ना आमिर की बात तो यहाँ मन की चल पड़ी है जिसमें की गरीब लोग ज़्यादा अमीर होते हैं धनवानों से. जब तक हमारी मानसिकता भोग से लिप्त रहेगी हमारे लिए स्वतंत्रता एक स्वप्न ही है. श्री श्याम जी ने जो अपनी टिप्पणी में लिखा है वो एक अनिवार्यता है स्वतंत्रता के लिए."परन्तु क्या दार्शनिक ज्ञान किसी को भी स्वतंत्रता दिला सकता है ?" इसका उत्तर हाँ है स्वतंत्रता केवल इसी से सम्भव है. क्योंकि ज्ञान से निकला हुआ कर्म ही श्रेष्ठ है और वही स्वतंत्रता दिला सकता है.हम अज्ञानी कितने ही प्रयास करलें पर दुःख से मुक्ति का रास्ता बिना ज्ञान के सम्भव नहीं

Govind Juneja Aug 22 '10
Message #7
डॉ प्रताप चौहान (jiva.com), स्वामी रामदेव जी, श्री श्री रविशंकर जी, मुरारी बापू , नरेंद्र मोदी, सुदांशु जी महाराज, स्वामी अनुभवानंद (just be happy.com) ऐसे अनगिनत लोग बहुत सही दिशा में कार्य कर रहे हैं. और इन सबकी प्रेरणा से सही मार्ग हमें मिल सकता है और जीवन को समृद्ध बनाया जा सकता है.

Shyam Juneja Aug 25 '10
Message #8
प्रिय अंकित, स्वतंत्रता को समझना हो तो बहुत गहरे में उतरना होगा ... भूखे पेट आदमिओं को स्वतंत्रता समझाने की कोई जरूरत नहीं होती .. सच्ची भूख अपने आप में इतनी शानदार टीचर है जो या तो स्वतंत्रता के मायने खोल देती है या फिर दुनिया से विदा कर देती है ... यहाँ जो बात खुल रही है वह मेरे जैसे भरपेट या कहें अफारे के मारे गुलाम हो चुकी मानसिकता वाले लोगों के लिए है.. प्रकृति नें समग्र प्राणी जगत के लिए आहार की व्यवस्था कर रखी है...आदमी तो सबसे बुद्धिमान है फिर उसे भूख की समस्या क्यों होनी चाहिए थी? कारण इतना है सभी प्राणी जीने के लिए खाते हैं सिर्फ आदमी है जो खाने के लिए जीता है.. यही परतंत्रता के मूल कारणों में से एक है ऐसा क्यों है ? आदमी खाने के लिए क्यों जीता है ? इस बात की खोज-बीन सतही नहीं हो सकती भीतर तो उतरना होगा ... यदि आप ऊब रहे हैं तो इस चर्चा को यहीं छोड़ देते हैं ..
The Forum post is edited by Shyam Juneja Aug 25 '10

अंकित ............The Real Scholar Aug 25 '10
Message #9
मुझे नहीं लगता है की चर्चायों को कभी भी छोड़ा जाना चाहिए .....अपितु मैं तो यह कहना चाहता था की चर्चा को उस परिणिति तक ले जाना चाहिए की केवल वो बौद्धिक चर्चा ना रह जाये उसका कुछ लाभ भी आम जन को हो | भारतीय संस्कृति में केवल समस्या को पूरी तरह समझने ही नहीं अपितु उसका समाधान समझने की भी परंपरा रही है ....और यह तो बुद्धिजीवियों का कर्तव्य कहा गया है तो परतंत्रता के कारणों को समझना होगा ...आदमी खाने के लिए क्यों जीता है इसको समझना होगा भीतर जाकर ही समझना होगा सतह पर नहीं ........परन्तु उसके बाद रुकना नहीं है .........आदमी जीने के लिए खाना प्रारंभ करे और जीना "सर्वे भवन्तु सुखिनः " के लिए इसके लिए उपाय भी खोजना होगा ..नावोत्पल की चर्चाओं का असर समाज तक होना चाहिए

Shyam Juneja Aug 26 '10
Message #10
प्रिय अंकित आपका मूल प्रश्न है ..क्या देश आजाद है ? वर्तमान दृश्य के परिप्रेक्ष्य में जो कुछ आप महसूस कर रहे हैं ..वहीं से इस प्रश्न नें जन्म लिया है ? प्रश्न जब उठा तो चिंतन तो आपने भी किया होगा ... मैंने भी आपकी तरह ही महसूस किया और मेरे मन में भी यही प्रश्न उठता रहा ..उसी के अनुसार चिंतन भी चला और वहाँ पर मुझे स्वतंत्रता को समझने की जरूरत महसूस हुई .. और यह प्रश्न इतना सरल नहीं था.. इसे हर दृष्टि से खंगालना जरूरी लगा सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक..इत्यादि ...समाज शास्त्र, अर्थ शास्त्र या राजनीती शास्त्र में मेरी कोई अधिक समझ नहीं है अधिक क्या बिलकुल समझ नहीं है ..दर्शन का भी मेरा कोई अध्ययन नहीं है लेकिन जो कुछ जीवन की किताब को पढते देखते समझ में आया वही ब्यान करता हूँ .. खैर आप कहते हैं चर्चा चलनी चाहिए तो वहीं से सूत्र पकड़ते हैं जहां से छोड़ा था... लेकिन नहीं ! अभी आज ही कुछ चला आया है पहले उसे पोस्ट करता हूँ जितनी लघु, संकुचित और सीमित जीवन-दृष्टि; उतनी ही तेज़ी से भागता है समय.. जीवन-दृष्टि जितनी व्यापक होती चली जाती है; समय की गति भी उसी अनुपात में धीमी होती चली जाती है .. जब दृष्टि अस्तित्व की व्यापकता को पा लेती है..तब समय ठहर जाता है.. विलीन हो जाता है ..आदमी के गणित के हजारों लाखों प्रकाश वर्ष मात्र आँख की झपक में बदल जाते हैं .. स्रष्टि और स्रष्टा में भेद समाप्त हो जाता है..वहाँ स्वतंत्रता है ... और यह घटना प्रयत्न साध्य बिलकुल भी नहीं है ...

विस्मय और जिज्ञासा, जीवन-दृष्टि को विकसित करने वाले तत्व ही नहीं हैं; अपितु, यांत्रिकता की यंत्रणा से, किसी सीमा तक बचाए रखने के उपक्रम भी हैं ..  

The Forum post is edited by Shyam Juneja Aug 26 '10

Shyam Juneja Aug 26 '10
Message #11
मैं कुछ उलटे सिरे से बात करने जा रहा हूँ चौंकना नहीं ...कभी परमात्मा के बारे में चिंतन किया है ? क्या है वह? आधुनिक विज्ञान "शुद्ध ऊर्जा" में हुए विस्फोट को जगत की उत्पति का कारण मानता है..लेकिन पमात्मा शुद्ध ऊर्जा भी नहीं है .. वह तो विशुद्ध ज्ञान है .. शायद यह कहना भी गलत है" परमात्मा विशुद्ध ज्ञान का अज्ञान है ..परम बोध की अबोधता है" जिसमें जरा सा यह बोध या ज्ञान की " मैं हूँ " इसे आत्मा में बदल देता है .. मत समझना की केवल साँस लेने वाले प्राणियों में ही आत्मा है जगत में जितना भी पदार्थ जितनी भी ऊर्जा है सब आत्म-वान है .. लेकिन आत्मा जब होने के विस्तार की मांग करता है तब यह चित में बदल जाता है और यह चित जिसे चेतना का केन्द्र भी कह सकते हैं देह धारण करता है यही अहं-भाव है इसके बाद की यात्रा देह के समानांतर, मन के, या कहें, अहंकार की यात्रा है .. जो की चित्रों, ध्वनियों, विचारों की अंतहीन उपद्रवी भीड़ है जो अपने आप को मैं के रूप में महसूस करती रहती है .. एक मैं दुसरे मैं को खाने के लिए सतत संघर्ष में रहता है .. ग्रहों के बनने की भी लगभग यही प्रक्रिया है ... दुसरे को खाने का अर्थ है दुसरे की स्वतंत्रता को बाधित करना ..वही survival of the fittest .. देश और समाज की भी यही स्थिति है .. यानि गुलामी की एक श्रृंखला है जो कही से भी कमजोर होती दिखाई नहीं देती .. यानि पूरी सृष्टि बंधन है .. लेकिन यदि यह सच है तो आदमी में स्वतंत्रता का विचार क्यों और कहाँ से आता है..क्योंकि आदमी की रचना ही इसी उद्देश्य से हुई है ...आदमी एक सम्भावना है बोध की अबोधता में लौटने की just innocence .. क्रमशः

Shyam Juneja Aug 27 '10
Message #12
प्रिय अंकित, आपने कोई हुंकारा नहीं भरा, और स्वतंत्रता के प्रश्न ने मुझे फिर दर्शन के गहन गंभीर गह्वरों में धकेल दिया है .. अद्वैत से द्वैत के स्फुटन में ..कहते हैं जो नहीं कहा जा सकता नहीं कहा जाना चाहिए.. लेकिन.. मुझ जैसे हिरन भी होते हैं दुनिया में.. उसी दिशा में दौड़े चले जाते हैं जिधर से आ रहा होता है बाघ..आह ! शुद्ध ज्ञान और परम अज्ञान में कोई भेद नहीं ..जितना अन्धकार है सृष्टि में उतना ही प्रकाश ... जितनी अच्छाई है उतनी ही बुराई भी है.. यह कुछ ऐसा है जैसे दो जापानी समुराई एक ही आकार प्रकार के बराबर की ताकत वाले किसी अखाड़े में लड रहे हों..लड़ रहे हैं या खेल रहे हैं यह भी नहीं कहा जा सकता .. बस जरा सा फर्क और एक नीचे दूसरा ऊपर ..फिर जरा सा फर्क दूसरा नीचे पहला ऊपर .. अद्वैत अतियों से मुक्त है क्योंकि युक्त है .. द्वैत में अतियों का द्वंद्व है इस जरा से फर्क के साथ ...पता नही मुझे इन प्र्लापित पंक्तियों को इस चर्चा में शामिल होने देना चाहिए या नहीं ,,पर अधिक से अधिक क्या कह लेंगे लोग बुड्डा सठिया गया है .. लेकिन एक निष्कर्ष पर भी आगया हूँ इस दुनिया में कोई भी देश या उसके नागरिक कोई भी स्वतंत्र नहीं है ..कोई सुखी भी नहीं है ..स्वतंत्रता और सुख के छायाभास मात्र है जिन्होनें लोगों को मोहित कर रक्खा है और कुछ नहीं है ..एक बेचारा योगी निकला था स्वतंत्रता और सच्चे सुख की राह में वह भी भटक गया लगता है .. मुझे माफ करना यार जिस उदेश्य को लेकर आपने चर्चा शुरू की थी मैं उससे भटक गया ...स्वतंत्रता एक शब्द है ही ऐसा मेरे जीवन में जिसके मैं सिर्फ सपने देखता रहा हूँ ..

अंकित ............The Real Scholar Aug 27 '10
Message #13
मान लेते हैं कोई स्वतन्त्र नहीं .पर क्या स्वतंत्रता संभव भी नहीं ............रामराज्य कहीं नहीं है पर क्या यह संभव भी नहीं है .............माना की आदर्श स्थिति नहीं है परत्न्तु क्या उस दिशा में प्रयत्न भी नहीं हो सकते हैं ? क्या दो पैरों वाले पशु को मनुष्य बनाया भी नहीं जा सकता है ? क्या जंगल के कानून ही चलते रहेंगे ....अगर हाँ तो फिर हमारे अस्तित्व की आवश्यकता ही क्या है ? और अगर हम की संसार को कुछ अच्छा नहीं कर सकते तो फिर हम हैं ही क्यों? क्या यह समाज और समजिक्ताओं के बंधन केवन अपनी अवश्यक्तऊँ की पूर्ती के लिए हैं ?


और अगर यह है तो हमारे ज्ञानी (अगर हम हैं तो) होने का क्या लाभ या ज्ञान के अस्तित्व का भी क्या लाभ ?

Shyam Juneja Aug 28 '10
Message #14
सापेक्षिक स्वतंत्रता यानि स्वतंत्रता का छायाभास् तो हमेशा से ही सम्भव रहा है .. आप लोहे की जंजीरों की तुलना में शायद सोने की जंजीरों में कुछ अधिक स्वतंत्रता का अनुभव कर लें .. अंग्रेजी हकूमत को मुगलों की हकूमत से बेहतर मान लें या फिर चुने हुए गुंडों की हकूमत को अंग्रेजी हकूमत से बेहतर मान लें, लेकिन, हकूमत तो है.. हालाँकि, इस हकूमत नाम की चीज़ की वास्तव में कोई जरूरत नहीं है ..इसे मात्र काम चलाऊ होना चाहिए था ... लेकिन हम सब इसके इतने आदि हो चुके हैं की बिना हकूमत वाले समाज की कल्पना भी नहीं कर सकते .. मेरी सीमित बुद्धि, ज्ञात मानव इतिहास में जिन दो व्यक्तित्वों को स्वतंत्रता के आसपास अनुभव करती है वे हैं बुद्ध और पतंजलि.. क्रमशः 



Shyam Juneja Aug 28 '10
Message #15
सबसे अच्छी समाज व्यवस्था को अभिव्यक्त करने का लिए.. राम-राज्य कहना भी प्रतीकात्मक है .. .. ऐसी कोई समाज-व्यवस्था उपलब्ध हो चुकी होती तो समग्र मानव समाज ने उसे अंगीकार कर लिया होता.. फिर इस्लाम, समाजवाद, नाजीवाद जैसी हिंसा-प्रतिहिंसा पर आधारित मजहबों और विचारधाराओं के अंकुरण के लिए अवकाश ही नहीं बचता.. हाँ इस युग में, विज्ञान और तकनीक के इस युग में, ऐसी किसी व्यवस्था के अनुसंधान की सम्भावनाएं उजागर हो गई हैं हैं .. एक ऐसा कोई माडल तैयार किया जा सकता है जो जीवन को पूर्णता दे सके .. स्वतंत्रता का अधिकतम आभास दे सके..और सबसे बड़ी बात जो हिंसा-प्रतिहिंसा से मुक्त हो...इस्लाम और समाजवाद मानव-विकास के बहुत साहसपूर्ण प्रयोग थे लेकिन, हिंसा-प्रतिहिंसा पर आधारित होने और करुणा के अभाव में दोनों विफल हो गये.. इस्लाम ने एक प्रकार की जड़ आस्था को अपना आधार बनाया तो समाजवाद ने आस्था के तत्व को ही प्रयोग से अलग कर दिया ...लेकिन अब एक ऐसा प्रयोग होना चाहिए ..क्रमश

Shyam Juneja Aug 28 '10
Message #16
आगे:-जिसमें आज तक के प्रयोगों से जो कुछ सर्वश्रेष्ठ मिला उसका समायोजन हो सके और व्यर्थ का निर्ममता-पूर्वक त्याग किया जा सके ..मिसाल के तोर पर हिंदुओं के पास विश्व की सर्वश्रेष्ठ प्रार्थना है "सर्वे भवन्तु सुखिनं..प्राणी मात्र के प्रति सद्भावना .. वासुदेव कुटुम्बकम " इस्लाम के पास इबादत का सबसे बढ़िया सलीका है .".हाथ मुह धो लो.. जाय-नमाज बिछाओ और प्रार्थना कर लो.". समाजवादियों का यह विचार" जिसके पास जो अतिरिक्त है वह ले लिया जाये जिसे उसकी जरूरत है दे दिया जाये" और" किसी के पास किसी भी सम्पति का व्यक्तिगत अधिकार नहीं" लेकिन "सभी कुछ सभी का" .. ईसाइयत से "do unto others as you want others to do unto you"..यह सब मैं मिसाल के तौर पर लिख रहा हूँ.. विचार तो चिंतको और विशेषज्ञों ने ही करना है .. इस नए मोडल को पारम्परिक व्यक्तिगत परिवार व्यवस्था से मुक्त होना पडेगा .. इसका प्रथम प्रशिक्षण भी फौजी अनुशासन के अंतर्गत होना होगा..एक पूरी की पूरी बंधन मुक्त वैज्ञानिक व्यवस्था जिसमें सादगी, स्वावलंबन, निर्भयता के साथ साथ करुणा, प्रेम और सह-अस्तित्व का विकास हो जिसमें आत्मरक्षा के लिए शस्त्र पर निर्भरता समाप्त .. जिसमें किसी की कर्तव्य-परायणता ही उसके अधिकार को परिभाषित करे .. जिसमें व्यापार और व्यक्तिगत हांनी-लाभ की कोई जगह न हो .. अपनी जवानी से लेकरआज तक ऐसे दिवा-स्वप्न ही देखे हैं और कुछ नहीं कर पाया .. शायद ऐसे ही सपने देखने के लिए संसार में आया था ..

Shreesh Aug 29 '10
Message #17
ओह अंकित जी, श्याम जी एवं गोविन्द जी ने तो क्या शानदार चर्चा छेड़ रखी है...अभी बस मनोयोग से पढ़ रहा हूँ, फिर जो बन पड़ेगा आज ही अपने विचार रखता हूँ.
The Forum post is edited by Shreesh Aug 29 '10

Shreesh Aug 29 '10
Message #18
मन में कई विचार गोते लगा रहे हैं. पर सबसे पहले श्याम जी द्वारा लिखे गए वे शब्द और वाक्य जिन्हें मैंने अपनी डायरी में लिख लिए हैं... ये लाइनें शून्यकाल में मेरा बहुत साथ देंगी. और ये पंक्तियाँ सूत्रवाक्य हैं..कई कुंजियों का समवेत छल्ला है..उन्हें देखें:


"जब चर्चा चल ही पड़ी है तो लगते हाथ बहुत पहले" सारिका" में पढ़ी धर्म की वह परिभाषा भी उद्दृत कर दूं जो पांच दशकों के बाद भी मुझे भूली नहीं .."अनासक्त विवेक से समष्टि कल्याण के हेतु किया जाने वाला कोई भी कर्म धर्म है."

"यह मन कैसे बनता है ? निश्चित रूप से क्रिया प्रतिक्रिया (stimulus and response cycle) चक्रों से मन निर्मित होता है."


"वृत्त की आवृति =वृति"

"उन्होनें आदतों के जमावड़े को कुण्डलिनी कहा है"


"जितनी लघु, संकुचित और सीमित जीवन-दृष्टि; उतनी ही तेज़ी से भागता है समय.. जीवन-दृष्टि जितनी व्यापक होती चली जाती है; समय की गति भी उसी अनुपात में धीमी होती चली जाती है .. जब दृष्टि अस्तित्व की व्यापकता को पा लेती है..तब समय ठहर जाता है.. विलीन हो जाता है ..आदमी के गणित के हजारों लाखों प्रकाश वर्ष मात्र आँख की झपक में बदल जाते हैं .. स्रष्टि और स्रष्टा में भेद समाप्त हो जाता है..वहाँ स्वतंत्रता है ... और यह घटना प्रयत्न साध्य बिलकुल भी नहीं है ... ð

विस्मय और जिज्ञासा, जीवन-दृष्टि को विकसित करने वाले तत्व ही नहीं हैं; अपितु, यांत्रिकता की यंत्रणा से, किसी सीमा तक बचाए रखने के उपक्रम भी हैं .."


अपनी समझ से इनपर चर्चा थोड़ी देर बाद करूँगा, क्योंकि थोड़ा विषयान्तर हो जायेगा. पहले अंकित जी की उठाई गयी चर्चा के मूल मंतव्य, और फिर इस चर्चा के मौजूदा स्वरुप पर सोचता हूँ.

अंकित जी का मूल प्रश्न है: "देश क्या आजाद है..?"

यह प्रश्न उपजता है जब विभिन्न सामजिक-राजनीतिक विडंबनाएं मुंह बाए आम इंसान को खड़े-खड़े निगलने लगती हैं..और जिनपर दारोमदार होता है रहनुमाई का वही जब मुनाफाखोर व्यापारी निकलते हैं. 

श्याम जी , मेरी समझ से अंकित जी देश की , राष्ट्र की और समाज की उस स्वतंत्रता की ओर ईशारा कर रहे हैं जहाँ सामाजिक-राजनीतिक अधिकार की गारंटी की आदर्श व्यवस्था होती है ताकि समाज का वह अंतिम आदमी जो केन्द्र में नही है, वह भी अपना सर्वांगीण विकास कर पाए. 

श्याम जी , अंकित जी राजनैतिक-सामजिक स्वतंत्रता (अपने पूर्ण अर्थों में) की बात कर रहे हैं, और आप आत्मिक स्वतंत्रता की बात कर रहे हैं. जो कई कदम और ऊपर की बात है. यदि आपकी कसौटी पर सोचें फिर तो हर कोई परम आनंदित, संतुलित-प्रफुल्लित होगा: जैसा हमारे ऋषि-मुनियों ने एक व्यवस्था बना रखी थी अथवा कहें सोच रखी थी/आजमा रखी थी. 

श्याम जी आप समस्या के जड़मूल निदान पर बात कर रहे हैं. अंकित जी ने जिन समस्याओं की ओर ईशारा किया है, वे समस्त समस्याएं तब पनपी हैं, जबसे आधुनिक राज्य की आधारशीला रखी गयी,जबसे औद्योगिक क्रांति हुई, जबसे औपनिवेशवाद और साम्राज्यवाद आया,जबसे नेशन-स्टेट की संकल्पना आयी. इसपर विस्तार से लिखना पड़ेगा. लिखूंगा भी.

श्याम जी, कुछ ऐसी समस्याएं हैं जो वाह्य जगत से/तक उपजी/सीमित हैं. आप "स्वतंत्रता" की व्याख्या कर रहे हैं, जो बिलकुल ही सटीक है. अंकित जी राजनीतिक-सामाजिक स्वतंत्रता' की बात कर रहे हैं, जो सहज अपेक्षित है. 

मै मानता हूँ, कि स्वतंत्रता एक व्यापक शब्द है और इसमे समस्त स्वतंत्रताएं सन्निहित हैं. किन्तु श्याम जी बिना घाव धोवे आप उसका उपचार नहीं कर सकते. यह घाव धुलना समझ लीजिए राजनीति और सामाजिकता के रास्ते होगा. और अंतिम निर्णायक उपचार आत्मिक अवलोकन यानी दर्शन से होगा. 

इतना आसान नही यह. देखिये. गाँधी जी परम आध्यात्मिक थे, दार्शनिक भी थे, गीता साथ रखते थे, आत्मिक रूप से वे संतुष्ट थे. पर राजनीतिक आन्दोलनों का नेतृत्व क्यूँ किया उन्होंने...? क्योंकि जिस आत्मिक स्वतत्रता (इसे परम साक्षी भाव कहने दीजिए) को पाना अभीष्ट है वो एक खास मानसिक अवस्था(परिपक्वता) के बाद अभ्यास से आती है. यह अभ्यास और मानसिक विकास हो सके इसके एक सुव्यवस्था की आवश्यकता है. सुव्यवस्था ; आधुनिक सन्दर्भों में एक पूरी राजनीतिक-सामाजिक आंदोलन में भाग लेकर फिर आदर्श वितरण की ठोस पद्धति निर्मित कर पाना है. इस दुरूह प्रक्रिया को आधुनिक आविष्कारों और उपभोक्तावादी संस्कृति ने और भी जटिल बना दिया है. अब आप द्वीप के किनारे नहीं रहते, जहां बस कुछ सभाएं मिलजुलकर सभी सार्वजानिक समस्याओं का निदान कर लेती थी. अब अमेरिका के बैंक में नकदी घटती है तो मंदी पुरे विश्व में छा जाती है. 

अंकित जी, मुझे ठीक करियेगा, यदि मै भटक रहा होउंगा..मै चाहता हूँ कि पहले विषय स्पष्ट हो जाए. अभी बहुत कुछ कहना बाकी है. इससे पहले मै श्याम जी के और आप सभी के विचार आमंत्रित करता हूँ. 


Shyam Juneja Aug 30 '10
Message #19
प्रिय श्रीश जी, तब तो मूल प्रश्न "सुव्यवस्था" का है.. "स्वतंत्रता" का नही..

Shreesh Aug 30 '10
Message #20
यकीनन श्याम जी; कुछ सम्बंधित अधिकार व स्वतंत्रताएं जो व्यक्ति के विकास के लिए वाह्य अनुकूलताएँ जुटाती हैं ऐसी सुव्यवस्था क्यूँ नही है आज देश में जबकि राजनीतिक रूप से हम ६३ सालों से ज्यादा हो गये स्वतंत्र हुए, संभवतः यह प्रश्न है श्री अंकित जी का..!

Shyam Juneja Aug 30 '10
Message #21
तो इस के कारणों में उतरना होगा जिनमें सबसे ऊपर है बडती हुई जनसंख्या ... मुझे इसका एक उपाय नजर आता है .. इलैक्ट्रोनिक और प्रिंट मीडिया को किसी तरीके से इस मुद्दे पर लगातार लगातार बात करने के लिए बाध्य किया जाय ...और यह बात ऐसी न हो जिसमे कुछ खास लोगो को कुर्सी पर बैठा कर बातचीत करवाई जाती है बल्कि हर आम-ओ- खास (हर धर्म, हर वर्ग, हर पेशे से जुड़े, हर आयु-वर्ग और लिंग के लोग) का एक विशेष रूप से तैयार की गई प्रश्नावली के अंतर्गत साक्षात्कार लिया जाये, ..उन्हें समस्या की गंभीरता से अवगत कराया जाये..उनसे समस्या के समाधान पूछे जायें .. उन्हें जिम्मेदारी का एहसास कराया जाये ...और यह कार्य एक लंबे समय तक चले .. यह मीडिया बहुत ताकतवर उपकरण है इतने आलतू फालतू विचार लोगों के दिल-दिमाग में ठूंसता रहता है.. इससे यह काम क्यों नहीं लिया जाना चाहिए प्रत्यक्षत इस कार्य-प्रणाली से आपको कोई समाधान नहीं मिलेगा.. लेकिन, एक शोर उबलता हुआ शोर जैसा आग लगने पर गूँज उठता है वैसी कोई जाग्रति की लहर आ सकती है .. लोग सोचने के लिए बाध्य हो सकते हैं कि आखिर उनका भविष्य है क्या ? और जब लोक चेतना (मुझे सत्ता और राजनीती शब्द से परहेज़ है) किसी कार्य को करने पर आमादा हो जाये फिर तो कहना ही क्या

Shyam Juneja Aug 30 '10
Message #22
दूसरी सबसे बड़ी समस्या है अनुशासन-हीनता और विकृत-अनुशासन की...मुझे श्रीमती इंदिरा गाँधी के तीन शब्द बहुत प्रिय थे पक्का इरादा, कड़ी मेहनत और अनुशासन (हालाँकि मैं जीवन भर कांग्रेस को उसकी नीतियों के कारण कोसता रहा हूँ) शास्त्री जी के दो शब्द थे संयम-नियम, मोरारजी निर्भयता की बात किया करते थे.. अडवाणी जी भी भय-मुक्त समाज कि बात करते रहे हैं..पता नहीं इन शब्दों को लेकर मीडिया पर कभी कोई चर्चा देखने सुनने को नहीं मिलती.. फूहड़ता जैसे हमारे समाज का गुण-धर्म बन कर रह गई है ..क्रमशः

Shreesh Aug 30 '10
Message #23
अंकित जी, आये नही ..कोई बात नही. हम चर्चा बढ़ाते हैं.


कहाँ से शुरू करूं..? 

सुव्यवस्था. 

सुव्यवस्था का लक्ष्य है कि सभी सुचारू रूप से रहें और सभी अपने ईच्छित लक्ष्य की ओर निर्बाध बढ़ सकें. इस मार्ग में जितना भी हो सकें; अवरोध हटाएँ जाएँ, खासकर वे अवरोध जिनके मूल में भौतिक अभाव हों एवं वे समस्याएं जो परस्पर विभिन्नताओं से उपजी हों.

श्री श्याम जी, अब जबकि आपने यह लिख दिया है :"मुझे सत्ता और राजनीति शब्द से परहेज़ है "

और मै राजनीति का विद्यार्थी हूँ. मै समझता हूँ आपका रोष. पर इसके लिए चाक़ू जिम्मेदार नही है कि आपने हाथ काट लिए हैं.

एक सुव्यवस्थित वितरण प्रणाली हो जिसमें सभी को न्यूनतम आवश्यक चीजें सरलता से प्राप्त हो, इसके इतिहास साक्षी है अनगिन प्रणालियाँ विकसित की गईं. किन्तु मानव मन में 'लोभ' व 'संग्रह' की सहज वृत्ति होती है(जिसकी ओर आपने इंगित भी किया था). तो अब यह इतना आसान नही किसी भी एक प्रणाली के लिए. सतत प्रयोग जारी है. जाने कितनी क्रांतियां हुईं..! संविधान बने, हुक्मरान बदले.

यह चलता रहेगा. अब इसी क्रम में मै आपके द्वारा संकेतित 'जनसंख्या-वृद्धि' व 'अनुशासन-हीनता' की समस्या को जोड़ लेता हूँ. सहमत हूँ. वाकई ये दोनों यदि अभीष्ट ढंग से हो जाएँ तत्क्षण एक परिवर्तन दृष्टिगत होने लाग जायेगा.

श्याम जी आपको नही लगता, ऐसे और भी अन्य कारक गिनाये जा सकते हैं. जैसे - अशिक्षा ,भ्रष्टाचार, गरीबी, कुरीतियाँ, धार्मिक-उन्माद, आतंकवाद, आदि-आदि. और ये महत्वपूर्ण कारक हैं, एक आदर्श व्यवस्था की चाहत रखने वाला इनकी अनदेखी करने की नहीं सोचेगा.

जैसा कि अंकित जी ने अपनी एक टिप्पणी में कहा.:"चर्चा को उस परिणिति तक ले जाना चाहिए की केवल वो बौद्धिक चर्चा ना रह जाये उसका कुछ लाभ भी आम जन को हो |"

आइये चर्चा करें कि हम व्यक्तिगत अथवा सामाजिक स्तर पर ऐसे कौन से कदम सरलता से (सरलता से इसलिए ताकि इसका अभ्यास बन सके) उठाये जा सकते हैं..?

मेरा मानना है, शिक्षा इसमें बहुत ही बड़ी भूमिका अदा करती है. और औपचारिक शिक्षा से ज्यादा मै उस शिक्षा की बात कर रहा हूँ, जिसे अनौपचारिक कहिये या जिसका कोई सिलेबस नही होता और जो वातावरण से सीखी जाती है. इस अनौपचारिक शिक्षा के सबसे बड़े वाहक हैं परिवार के जन और वरिष्ठ जन का जिम्मेदाराना एवं स्नेहिल-सभ्य व्यवहार. यहाँ वरिष्ठ-जन का मतलब ८ साल वाले के लिए १० साल वाले का व्यवहार, ४० साल वाले के लिए ७० साल वाले का व्यवहार. यह व्यवहार वाणी तक ही सीमित नही है. आचरण की भी बात है. आपको नहीं लगता लोग कितना कैजुअली बात करते हैं. शब्दों का कितना शिथिल प्रयोग करते हैं. केवल अपनी धारणा सत्य साबित करने के लिए किसी भी महापुरुष तक को किसी भी अपशब्द से नवाज़ सकते हैं. यहीं/यूँ ही अनुशासनहीनता पनपती है. 

माता-पिता, वरिष्ठों का सुबह से लेकर शाम तक आचरण, और घर से बाहर भी उनका आचरण,( चूँकि समाज के बाकी अन्य लोग भी माता-पिता, सम्बन्धियों के बारे में कैसी राय रखते हैं, यह भी महत्वपूर्ण हो जाता है.

तो सबसे पहले व्यक्तिगत स्तर पर अध्ययन, अनुशीलन, सतत श्रम एवं अनुशासन की महत्ता का उदाहरण सतत देना होगा. मतलब आचरण की महत्ता.

फिर औपचारिक शिक्षा पर आते हैं...यहाँ तो गंभीर परिवर्तन की आवश्यकता है. यह एक अलग गंभीर मुद्दा है, मेरे पास इसपर कहने को काफी कुछ है. फिर कभी. संक्षेप में शिक्षा ऐसी होनी चाहिए जो काफी लचीली हो, अपने पर्यावरण-सामाजिक वातावरण से सुसंगत हो और छात्रों एवं शिक्षक का सम्बन्ध औपचारिक-अनौपचारिक का सुन्दर-गंभीर मिश्रण हो. मित्रवत तो हो ही, और दोनों ही स्वयं को विषय का शोधार्थी समझें . व्यापार की तरह Give n Take का गंदा रिश्ता ना हो.

फिर राजनीतिक शिक्षा-जागरूकता की आवश्यकता व प्रशिक्षण. लोगों को जानना होगा कि उनकें सहज अधिकार क्या हैं, उन्हें कैसे ईस्तेमाल करना है और इससे भी बड़ी बात उन अधिकारों को कैसे-किन पद्धतियों से प्राप्त करना है..मतलब साध्य से ज्यादा साधन की पवित्रता पर बल. 

और भी कई बातें निश्चय ही हैं...चाहूँगा आप सभी विद्वत जन से अनुरोध है कि सुझावें..मेरा फोकस है कि वे उपाय जो व्यक्तिगत स्तर पर किये जा सकते हों और सरलतम भी हों.

अंकित ............The Real Scholar Aug 30 '10
Message #24
जी हाँ श्रीश जी स्वतंत्रता नहीं तो सुव्यवस्था ही कह लीजिये परन्तु समस्या पर चर्चा होनी चाहिए 

अब सीधी बात हम इस बात पर गर्व करते हैं की हमने रक्तहीन तरीके से स्वतंत्रता प्राप्त कर ली ..........परन्तु क्या यह ठीक है ? क्या हमने सच में कोई स्वतंत्रता प्राप्त की है ? या श्याम जी के शब्दों में कहें तो सुव्यवस्था प्राप्त की है ?

आज जो शासन व्यवस्था है वो east india company और ब्रितानिया हुकूमत के द्वारा मिल कर विकसित की गई थी और उनके लिए भारत और भारतीय केवल संसाधन थे जिनका उपयोग वो अपनी विलासिता और मुनाफे के लिए करते थे और उनके इस कार्य में सहयोग करने वाले भारतीयों के लिए भी कुछ सुविधाएँ थीं और शेष भारत के लिए तो केवन अंतहीन दुखों का संसार 

भारत का स्वतान्र्ता संग्राम आन्दोलन भी इसी व्यवस्था के विरुद्ध था .....परत्न्तु कथित स्वतान्र्ता मिलने के बाद भी स्थिति में और व्यवथा में कोई भी परिवर्तन नहीं आया है सारी व्यवस्थाएं उसी तरह की हैं .उदारहण के रूप में आज भी सेना के निचले कर्म्चारियूं के लिए तो परिस्थितियाँ अमानवीय होती हैं जबकि उच्चाधिकारी राजसी जीवन व्यतीत करते है...एक अनुमान के आधार पर ३३% सैनिक सेना अधिकारीयों के घर पर घरेलु नौकर का काम करते हैं |

इसी लिए मुझे लगता है की १५ अगस्त १९४७ को लाल किले पर लटकने वाले कपडे के रंग और नोर्थ ब्लाक के क्लर्कों की चमड़ी के रंग के अलावा कुछ बदला ही नहीं है 

क्या यह हास्यास्पद नहीं की ६० वर्ष का भारतीय रेलवे १५० वर्ष का है ???

Shyam Juneja Aug 30 '10
Message #25
श्रीश जी..पहली बात "मुझे सत्ता और राजनीति शब्द से परहेज़ है "..लेकिन, इसे आप पर या किसी और पर लागू करने का मेरा क्या अधिकार है ?२." किन्तु मानव मन में 'लोभ' व 'संग्रह' की सहज वृत्ति होती है(जिसकी ओर आपने इंगित भी किया था) आदमी के लोभ और संग्रह की वृति उसकी बुद्धि के अनुपात में सहज और स्वाभाविक नहीं है.. यह बहुत जटिल और विकट है..इसी के कारण तो सारी अव्यवस्था है और इसका विकास और पोषण जहां से होता है उसे परिवार कहते हैं .." मैं और मेरा परिवार और उस परिवार का अहंकार" बाकि दुनिया जाये भाड़ में ... क्या यह आज की सच्चाई नहीं है ?३." अशिक्षा ,भ्रष्टाचार, गरीबी, कुरीतियाँ, धार्मिक-उन्माद, आतंकवाद, आदि-आदि. और ये महत्वपूर्ण कारक हैं, एक आदर्श व्यवस्था की चाहत रखने वाला इनकी अनदेखी करने की नहीं सोचेगा" अनदेखी नहीं है.. लेकिन, इन्हें प्राथमिकता के क्रम में रखना होगा.. सुव्यवस्थित तरीके से.. एक एक समस्या को गंभीरता से पकडना होगा .मैं तो समझता हूँ सबसे पहले इन्हीं की सूची बना लेने का काम किया जाना चाहिए...४."आचरण की महत्ता" का जो प्रश्न आपने उठाया है उसमें परिवार ही सबसे बड़ी बाधा उपस्थित करते हैं.. इस मामले में मेरे विचारों से आप अवगत हैं ..


Shyam Juneja Aug 30 '10
Message #26
अंकित जी, इस सारे दर्द की अगर कोई रामबाण दवा है तो वह योग की समझ विकसित करने और उसकी साधना में है .. आप कोई भी कार्य करें सभी कार्य आपके चित को निरंतर विभजित किये जाते हैं केवल योग ऐसा कार्य है को आपके चित को युक्त करता है ..युक्त चित लोग ही व्यवस्थित समाज का निर्माण कर पाते हैं.. कैसे? इसका उत्तर कल! ..क्रमशः

Shreesh Aug 31 '10
Message #27
श्याम जी आपके कड़े शब्द आये नही..वैसे अभी तो काफी कुछ आना बाकी है....वैसे यहाँ कही भी असहमति नही दिख रही. मुद्दा महज इतना है कि समस्या के वाजिब हल क्या-क्या हैं और उनमें व्यक्तिगत स्तर पर योगदान कैसे करेंगे..!

Shreesh Aug 31 '10
Message #28
श्याम जी...परिवार का विकल्प सुसंगत सुझा दीजिये, परिवार हटा लीजिये मुझे कोई आपत्ति नही है.
The Forum post is edited by Shreesh Aug 31 '10

Shyam Juneja Aug 31 '10
Message #29
चर्चा को और अधिक विस्तार देने की इच्छा नहीं हो रही ...आज के इन अंधेरों में, अपनी कुछ कमियों के बावजूद मुझे बाबा रामदेव में उम्मीद की एक किरण दिखाई दे रही है ..बाबा राम देव के लोक-मंच पर आने के बहुत पहले से मेरे मन में एक ख्याल था की जब भी मानव समाज किसी कठिन मोड से गुजर रहा होता है वहाँ कोई योगी उसके मार्गदर्शन के लिए अवतरित हो ही जाता है ..इस योगी में ऐसी क्या खासियत होती है? .. कोई साधारण मनुष्य अपने चित की वृतियों का निरोध करते हुए जब उस परम चेतना की एक झलक भी पा लेता है तो उसकी मूल स्वभाविक क्षमताएं सौ गुना शक्तिशाली हो जाती हैं .(इस मामले में मानव इतिहास के विकास में मुझे एक भी अपवाद नजर नहीं आता यहाँ तक की मुहमद भी.. भले ही पंक्ति में वे अंतिम हों) सभी में इन क्षमताओं का अद्भुत विकास देखने को मिला है .. और सभी ने अपने समय की सवारी की.. न की समय को अपने ऊपर सवार होने दिया .. यदि योग व्यक्तियों को ऐसी क्षमताएं दे सकता है तो समाज को क्यों नहीं ? जिन लोगों ने मार्शल आर्ट्स का विकास किया वे सब के सब योगी थे ...विज्ञानं और तकनीक की खोज करने वाले सभी लोग जाने अनजाने में योगी ही रहे हैं ... चित की वृतिओं का निरोध करते हुए लक्ष्य को वेधने वाले .. गीता में योग का एक सूत्र है "योगसू कर्मसु कौशलम" इस परिभाषा में तो कला को साधने वाले , कृषि को साधने वाले (व्यापार और युद्ध मेरी दृष्टि में सर्वकालिक कर्मक्षेत्र नहीं हैं मुख्यत हिंसा पर आधारित होने से इनमें किसी प्रकार की उपलब्धि का मेरी दृष्टि में कोई अधिक मूल्य नहीं है) मैंने आज तक योग के तीन सूत्र देखे हैं और तीनो विलक्षण है और इस तीसरे सूत्र से अपनी बात को समापन दे रहा हूँ ये शिव सूत्र है "विस्मयो योग भूमिका"

Shreesh Aug 31 '10
Message #30
यहाँ आपसे सहमत हूँ, आप निर्देशित कर रहे हैं यदि व्यक्तिगत स्तर पर योग का सहारा लिया जाए, योग को उसके पूर्ण अर्थों में जिया जाये..तो वृत्तियों पर अंकुश लग सकेगा. श्याम जी, आप देखिये स्वयं अपनी बात दूसरी और से लाते हुए मै स्वयं वृत्तियों, योग, अनुशासन आदि की बात करने लगा हूँ. वज़ह ये है कि जो आप सुझा रहे थे/हैं वही अंतिम सफल निदान है. मैंने इसे स्वीकारा भी था. मैंने बस घाव धुल लेने की बात की थी. अब मुझे लगता है, इन अर्थों में ही शायद भारत के 'विश्वगुरु' बनने/रहने की बात की जाती रही होगी कि भारत लोगों को अंतिम विकल्प/पथ सुझाएगा. रामदेव जैसा कर्मयोगी निश्चित ही यहाँ आशा की बड़े सूर्यकेंद्र हैं. अब आप स्वयं देखिये इतने वर्षों के प्रचार-प्रसार के पश्चात अब वे भी राजनीति में प्रवेश की बात कर रहे हैं..यह अकारण नही है. क्या उन्हें सत्ता-लिप्सु कहा जाए? श्याम जी, चर्चा तो बहाना है..यहाँ तो विचारों का ही सीखना-सीखाना (आपके शब्दों में) चल रहा है. आप अपनी ईच्छा से इसे स्थगित कैसे कर सकते हैं..? आपको तो हमने प्रेम के मजबूत बंधनों में जकड़ लिया है..! अब अपनी इस वृत्ति पर निरोध ना लगाइयेगा ..इस पर तो परमात्मा का भी वश नही है.
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Shyam Juneja Aug 31 '10
Message #31
प्रिय श्रीश जी, कड़े शब्द और आपके लिए!!! यह तो बस दिलजोई थी या फिर इतना सा उद्देश्य मेरे प्रिय श्रीश को किसी की नजर न लगे और कुछ नहीं!हाँ अब आया है सही प्रश्न ..परिवार का सुसंगत विकल्प मेरी दृष्टि में दो विकल्प हैं लेकिन, दोनों में मूल भूत कुछ शर्तें है ..जैसे :-१. किसी भी अन्य दायित्व और विवेचना को लादे बिना मातृत्व के लिए सर्वोच्च सम्मान और अधिकार की प्रतिष्ठा व् उसकी सुरक्षा २. वर्चस्व वादी मानसिकता से मुक्त होकर जीने की कला के विकास का सतत अभ्यास ३.व्यक्ति के सर्वांगीण विकास के कार्यक्रम और योजनाएँ४. सम्बन्ध स्थापित करने में चुनाव का अधिकार स्त्री-वर्ग के पास सुरक्षित ५. हर किसी को उसकी योग्यता और क्षमता के अनुसार कार्य का आबंटन .. स्त्रीवर्ग के उपयुक्त कार्य उनके लिए सुरक्षित पुरुष वर्ग के अनुरूप कार्य पुरुषों के लिए सुरक्षित कुछ कार्यक्षेत्र ऐसे भी जिनमें दोनों की साँझ हो और भी कुछ विचारणीय बिन्दु हैं ..जिनका उल्लेख अपने समय पर आ जायेगा जिन दो विकल्पों की बात कर रहा हूँ उनमें पहला विकल्प तो ये है जैसे परिवार हैं वैसे ही चलते रहें लेकिन लड़कियों को जबरन पराये घर भेजने की प्रथा पर रोक लगे .. १८-२० साल की उम्र के बाद यह लड़की का अधिकार होना चाहिए की वह किसे अपने बच्चे के पिता के रूप में स्वीकार करती है.. यदि पति के रूप में भी वह किसी का चुनाव करती है और पति के घर जाना चाहती है तो यह उसकी अपनी इच्छा होनी चाहिए न की बाध्यता .. लेकिन इस प्रकार के विकल्प में उस मूल समस्या का समाधान नहीं है जो व्यक्ति में मोह, लोभ, क्रोध और अहंकार और वर्चस्व की भावना को पैदा करते हैं जिसके चलते हम सतत हिंसक समाज में जीने को अभिशप्त हैं ... ओशो ने जैसी कम्यून व्यवस्था की बात की है मेरे विचार में उस पर भी चिंतन होना चाहिए ..कम्यून में पैदा होने वाले बच्चे कम्यून की जिम्मेदारी होने चाहिए .. हालाँकि मैं ओशो के हर विचार से सहमत नहीं हूँ लेकिन इस बिन्दु पर उनके तर्क अकाट्य हैं (कम्यून के लिए भारतीय शब्द आश्रम हो सकता है या फिर बुद्ध ने जिस संघ की बात की है)

Shyam Juneja Aug 31 '10
Message #32
बीच बीच में थोडा बहकना अच्छा लगता है (:...बाबा राम देव की बात चली है .. मुझे कभी लगता है ये पिछले जन्म के पैगम्बर हजरत मुहम्मद हैं .. १५०० साल पहले अपनी की हुई उन महान गलतियों को ठीक करने के लिए दुनिया में आये हैं.. उस जन्म में बीड़ा उठाया था सारी दुनिया को काट छांट कर बराबर कर देने का (लान में जैसे घास तराशी जाती है) और इस बार .."पूरे संसार को योग द्वारा रोग मुक्त करने का " भगवान उनका भला करे .. और तो किसी बात से नहीं लेकिन. इस ओढ़े हुए ब्रह्मचर्य से मुझे खतरा महसूस होता है .. ब्रह्मचर्य, कर्मसु कौशलम की out put होना चाहिए न की in put ब्रह्मचर्य की इस स्थिति को न समझ पाने के कारण हमारी लोक चेतना के साथ बहुत गडबड हो गई है और अब इसे ठीक कर पाना तो !!... भगवान कृष्ण को ही आना पडेगा!!
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Shreesh Aug 31 '10
Message #33
तो श्याम जी, उन आवश्यक शर्तों के साथ जो दो विकल्प रहे..वे हैं: १. मातृ -सत्तात्मक परिवार संस्था एवं २. कम्यून प्रणाली .ओशो की कम्यून प्रणाली के बारे में सूना तो हूँ पर जानता नही हूँ. क्या इसे बौद्ध संघ सदृश ही माना जाए या यह अलग है. थोड़ा प्रकाश डालें. दूर अतीत में प्लेटो ने भी कम्यून सिस्टम की बात की थी, उससे तो अवगत हूँ . फिर मै कोशिस करता हूँ कुछ लिखने की..!



Shreesh Aug 31 '10
Message #34
अंकित जी, विषय-प्रवर्तन कर कहाँ चले बंधू..? जल्दी आओं दोस्त...! गोविन्द जी, जयन्तक जी आप लोग भी..आइये..!


Shyam Juneja Aug 31 '10
Message #35
श्रीश जी, प्लेटो और बुद्ध के समय को छोडिये .. हम आज की बात करते हैं .. ओशो के साक्षात्कार का एक वीडियो गोविन्द जी ने निंग में लगाया था पता नहीं कितने लोगों ने देखा .. हो सके तो देखिये गोविन्द जी से कहूँगा दुबारा लगा दें ...ओशो के कम्यून का आधार एक ही शब्द में (जितना मेरी समझ में आया ) सच्ची सुच्ची मित्रता .. इसमें समवय की बात मुझे लगा की जुड़नी चाहिए ..ओशो के कम्यून में किसी स्त्री के लिए पुरुष को रिझाने के लिए मेक अप करने की या अधिक सुन्दर दिखने की जरूरत नहीं; न ही पुरुष के लिए स्त्री को रिझाने के लिए बाहूबली होने की कोई जरूरत है .. वहाँ प्रेम सर्वोच्च है, काम-सम्बन्ध सबसे नीचे.. मैत्री, करुणा, आपसी सहयोग, आपसी विश्वास, और सद्गुण इन दो के बीच में है ... वहाँ कोई किसी को बांधने के लिए नहीं है .. आज आप दोस्त की तरह रह रहे हैं.. कल को अलग हो रहे हैं तो वह भी दोस्त की तरह अलग हो रहे हैं.. बाध्यता नहीं है उस सिस्टम में.. कोई ठप्पा नहीं लगता किसी पर .. बच्चो की जिम्मेदारी कम्यून की है ... इन सब गुणों के विकास की एक मनोवैज्ञानिक प्रणाली है और वह ध्यान की है ..बहुत बहुत सी मूर्खताएं और अंधविश्वास जो हमें विरासत में मिलती रही हैं उनसे मुक्त होकर जीने की कला की प्रयोगशाला है कम्यून ... जो कुछ मुझे समझ आया मैंने बता दिया आगे आप देखो ...वैसे आप विश्व -विद्यालय में रह रहे हैं क्या वहाँ पर ऐसी मित्रता विकसित नहीं होती ? यदि यह मित्रता स्थाई भाव से एक कम्यून का आकार ले ले तो इसमें मेरे हिसाब से कोई परेशानी नहीं होनी चाहिए ... लेकिन जैसा की मैंने पहले ही ऐसी किसी व्यवस्था के लिए कुछ शर्तों का उल्लेख किया है .. मेरे हिसाब से यह सभ्य होने की दिशा में शायद पहला कदम होगा ..

Govind Juneja Aug 31 '10
Message #36
श्री श्याम जी,श्रीश जी और अंकित जी आप सबके विचार पड़े पड़ते-पड़ते समय लगा और ऐसा लगा जैसे विचारों की पगडण्डी पर चला आया हूँ.बात स्वतंत्रता और सुव्यवस्था की हो रही है. मेरा दृष्टिकोण ज़्यादा व्यापक नहीं पर जो अनुभव करता हूँ की, हम सभी भटके हुए मुसाफिर की तरह जिंदगी खोजते रहते हैं. लेकिन हर तरफ बंधन ही बंधन महसूस होते हैं जो बाहर के कम खुद के कहीं अधिक होते हैं.कोई भी व्यक्ति,देश,समाज अगर अपनी संवेदना,उत्साह,creativity,विश्वास खो देता है तो उसे परतंत्रता, कुव्यवस्था,अपराध का शिकार होना ही पड़ता है.हम अपने बच्चों को ऐसी शिक्षा व्यवस्था, ऐसे rules दे रहे हैं जिसमें वो अपने सब गुणों से वंचित हो एक वस्तु मात्र बन जाये और वस्तुओं में क्रांति,सुव्यवस्था कहाँ से आएगी जब तक उनका निर्देशन मानवता ना करे. 

गुरुओं का स्थान हमारे धर्म ने सबसे ऊपर रखा पर हमारी व्यवस्था ने और उससे जनित हमारे समाज ने इसका स्थान सबसे नीचे का कर दिया जिसका परिणाम है की आज़ाद होते हुए भी गुलामी है. आज अपना ही भविष्य हमें डराता है. बिना गुरु के गति नहीं ऐसा हमारे संत कहते हैं और यह है भी सही आज हमारे पास ऐसी कोई समाजिक शक्ति (गुरु) नहीं जो सत्ता को परिवर्तित करने का साहस रखती हो. 

क्रमशः
The Forum post is edited by Govind Juneja Aug 31 '10


Jayant k. Shrivastava Sep 1 '10
Message #38
नावोत्पल " पर इतनी अच्छी चर्चा चल रही है और मैं अनभिज्ञ था...खैर ...देर आये दुरुस्त आये ...के मद्देनज़र क्षमा मांगते हुए श्रीश जी को मुझे याद करने के लिए धन्यवाद देते हुए आप सब को ज्ञानो मयी, उत्तेजक चर्चा के लिए ...बधाई .....!...अब अंतिम दिनों के विचार पढकर मुझे महसुस हो रहा है की हम " अवतारवाद " से बुरी तरह ग्रस्त हैं ..यह धारणा हमारे मन में गहरे तक पैठी है की "कोई महान "अवतार "लेगा और चुटकी बजाते ही सारे संकट हर लेगा ..इसी आस या शायद बेहतर होगा "निराशा "में अकर्मण्यता की हद से भी पार निठल्ले बने रहते हैं ....! फिलहाल ज्यादा विस्तार में न जाते हुए संक्षेप में ..." मुझे यह सभ्यता का संकट लगता है .....! विषयांतर के लिए माफी चाहते हुए अर्ज करता हूँ .....

दिल में जोश बाजुओं में जोर आना चाहिए एक इन्कलाब अभी और आना चाहिए टिमटिमाते इन दीयों से अन्धकार हरता नहींअब दहकते सूर्य की इक भोर आना चाहिए ...!

Shyam Juneja Sep 1 '10
Message #39
प्रिय जयन्तक जी, सबसे पहले चर्चा में अपनी उपस्थिति दर्ज कराने के लिए आपका धन्यवाद ! आपकी हमें प्रतीक्षा रहती है .. आपने सही लिखा हमारी लोकचेतना "अवतारवाद" से बुरी तरह ग्रस्त है ..गोविन्द जी की टिप्पणी की अंतिम पंक्ति से मैं सहमत नहीं हूँ शायद वे जो कहना चाह रहें हैं उसके लिए सही शब्दों का चुनाव नहीं कर पाए ... मेरा मानना है सुव्यवस्थित होने के लिए हमें इतिहास को भी सुव्यवस्थित करना पडेगा .. यह सारी चर्चा अवतारवाद के विरोध और इतिहासबोध के पक्ष में ही जा रही है .. हमें इतिहास के जड़ तत्व का ही अध्ययन कराया जाता है /कराया जाता रहा है.. इतिहास के चेतन तत्व का कोई बोध ही विकसित नहीं हो पाया .. आखिर राम, कृष्ण, शिव या अन्य पौराणिक अथवा ऐतिहासिक व्यक्तित्व भी आपके हमारे जैसे हाड-मांस के बने व्यक्ति थे फिर क्या कारण की लोकचेतना इन्हें भगवान बना पूजती है ?..कुछ तो कार्य इन्होने किये होंगे जिसके चलते आम आदमी ने किसी न किसी प्रकार की राहत महसूस की होगी .. मैं जब श्री कृष्ण के व्यक्तित्व के बारे में सोचता हूँ आखिर क्या कारण रहा की लोग उन्हें सर्वगुण संपन्न सोलह-कला सम्पूर्ण भगवान के रूप में याद करते हैं तो मेरे सामने गोपियों के साथ उनकी रास-लीला या महाभारत में अर्जुन का सारथि बनना या और भी बहुत से कार्य जो उनके द्वारा किये गए बताए जाते हैं नहीं आते जितना की आतताइयों द्वारा गुलाम बना ली गई स्त्रिओं को छुड़ाने और उनके पुनर्वास का प्रबंध करने और उन्हें अपना नाम देने का कार्य सामने आता है ..यह सोलह हजार स्त्रिओं में कईयों के बच्चे थे कई गर्भवती थीं .. आज के हिसाब से तो इन स्त्रिओं को आत्महत्या कर लेनी चाहिए थी या फिर इनकी हत्या कर दी जानी चाहिए थी ..लेकिन, कृष्ण की दृष्टि यह ना थी..उनकी जीवन दृष्टि अपने समय तक ही सीमित न थी अपितु हमारे समय का भी अतिक्रमण करती हुई प्रतीत होती है स्वाभाविक है गुलामी से मुक्त करने वाला या जीवन दाता इन १६००० स्त्रिओं और उनके वंशजो के लिए भगवान हो गए ...शिव के व्यक्तित्व की खोज में उतरेंगे तो इतने विलक्षण तथ्य सामने आयेंगे ..दोंतों तले ऊँगली दबानी पड़ जाती है..पैगम्बर के बारे में चर्चा नहीं करूँगा यदपि उनका जीवन चरित भी आलोचनात्मक विवेचना की मांग करता है ... अवतार वाद की जकडन से लोक चेतना को मुक्त करने के लिए मिथ से इतिहास को छानना बहुत जरूरी है और इतिहास में जड़ तत्व को चेतन तत्व यानि जीवन दृष्टि से अलगाना जरूरी है जिसमें आप सबका सहयोग अपेक्षित है

Govind Juneja Sep 1 '10
Message #40
श्री श्याम जी अपने मेरी पंक्ति से असहमति जताई है. पर मेरा विचार यह था की गुरु/शिक्षक इतना सामर्थ्य रखते हैं की समाज को दिशा दे सकें और युवा शक्ति अगर संचालित हो जाये तो बहुत कुछ हो सकता है मगर ऐसे गुरु/शिक्षक चाहिए जो केवल ज्ञान,विज्ञानं,इतिहास ही नहीं बल्कि जिन्दगी का अनुभव भी दे सकें.


Shreesh Sep 3 '10
Message #41
श्याम जी, माफ़ करियेगा, चर्चा में से अचानक अनुपस्थित हो गया. वैसे मुझे इसकी याद आती रही.

तो सबसे पहले विचार करते हैं उस प्रणाली की, जहाँ मातृसत्ता हो( आपकी उन जरूरी शर्तों के साथ) : श्याम जी, इतिहास की पुस्तकें यदि गलत नही हैं, तो तथ्य यह है कि सभी सभ्यताएं प्रारम्भ में मातृसत्तात्मक रही हैं. कार्य स्तर पर यह विचार प्रयोग में आ चुका है. यह प्रयोग असफल हुआ , यह नही कहा जा सकता, अभी भी कुछ सभ्यताओं,जातियों में यह प्रचलित है. पर यह सही है कि ज्यों-ज्यों सभ्यताएं आधुनिक होती गयीं, ज्यों-ज्यों उनके परिवार, समाज का दायरा बढ़ता गया, उनका स्वरुप पितृसत्तात्मक होता गया. इस प्रवृत्ति से फिलहाल यह साबित नही होता कि मातृसत्तात्मक प्रणाली असफल हुई हो, पर शायद सुसंगत नही रही. इसके दो ही कारण हो सकते हैं, पहला- अब संगठन , परिवार नमक संस्था से गुजरता हुआ ;राज्य' तक आ पहुंचा था, और यह परिवर्तन मनुष्य की बढ़ती अनगिन आवश्यकताओं व असुरक्षाओं के मद्देनज़र असंगत भी नही कहा जा सकता. दूसरी वज़ह जो मै सोच पा रहा हूँ, वो यह कि शायद मातृसत्तात्मक प्रणाली के लिए एक जरूरी नैतिक-मानसिक परिपक्वता की दरकार होती है, जिसे सामूहिक स्तर पर पा लेना इतना आसान आज भी नही है. तो श्याम जी, नारियों को उनके सहज अधिकार मिलने चाहिए, समाज से यह वैचारिक रूढ़ि मिटानी होगी कि स्त्रियाँ अपनी क्षमताओं में कहीं से भी कमतर हैं. लेकिन श्याम जी, कैसे मिटेगी यह रूढ़ि..? तो फिर कहूँगा कि -वरिष्ठों के युक्तियुक्त आचरण से एवं अनौपचारिक-औपचारिक शिक्षा से ही. महत्वपूर्ण यहाँ मानसिकता ही है और मानसिक परिपक्वता ही है.

दूसरा विकल्प , आपने सुझाया जो कम्यून सिस्टम..मित्रतापूर्ण सम्बन्ध. श्याम जी यहाँ फिर एक चुनौती है..! सामान्य सामाजिक व्यवहार में भी परिपक्व मित्रता कितनी देखने को मिलती है..? जिन्हें आज आदर्श मित्र माना जाता है, उनमें कालांतर में इतनी छोटी सी बात को लेकर मित्रता टूट जाती है कि बाकियों को उस बात पर हंसी आती है. यहाँ JNU में मैंने देखा है, कि ऐसी कई मित्रता विकसित होती है. लम्बी चलती भी है, पर यदि उनके भीतर की बातें जानी जाएँ तो आश्चर्य होता है कि बाहर जो अपनी आधुनिकता एवं मानसिक परिपक्वता के लिए जाने जाते हैं और सहज ही अनुकरणीय माने जाते हैं भीतर में इतनी छोटी-छोटी रूढ़ियाँ follow करते हैं कि मुझे घिन आ जाती है उनके दोगलेपन पर. इस बेहद महत्वपूर्ण सम्बन्ध (मित्रता) पर आश्रित हुआ जा सकता है, सुव्यवस्था के लिए किन्तु यह इतने बारीक -महीन धागे(परस्पर विश्वास का धागा) पर टिका होता है कि इस पर आशान्वित नही हुआ जा सकता. और विश्वास की शिक्षा नही दी जा सकती. यह धीरे-धीरे स्वभाव में आती है. जीवन -व्यापार में क्या इतना समय है कि स्वयं के मानसिक रूप से परिपक्व हो जाने के पश्चात ही अन्यान्य जिम्मेदारियां लें. एक और बात , एक आदमी के परिपक्व हो जाने की बात नही है, यहाँ बात समाज की है. आप स्टेशन पर नहीं थूकते हैं तो भी ये उम्मीद नही कर सकते कि स्टेशन साफ़-सुथरा रहेगा ही, हाँ , आप की एक छोटी कोशिस बाकियों को प्रेरित कर सकती है, पर आश्वस्त तो फिर भी नही हुआ जा सकता..ना.

मै नकारात्मक हो रहा होउंगा तो बताइयेगा. मुझे लगता है.. कि परिवार का विकल्प मात्र परिवार ही हो सकता है. लेकिन इसके लिए अपनी-अपनी जिम्मेदारी ईमानदारी से उठानी पड़ेगी. इस पारिवारिक धर्म को भी हिन्दू पद्धति में आश्रम की संज्ञा दी गयी थी. गृहस्थ आश्रम. सम्पूर्ण बाबा श्री कृष्ण का जीवन देखिये..दो बातें स्पष्टतः दिखती हैं..जब जो किया पूरी तरह से किया और दूसरा निर्लिप्ती भाव से किया. बहुत कठिन है यह. असंभव नही. समाज अनुकरण के लिए नेतृत्त्व खोजता है. महापुरुषों की शायद एक ही कमी होती है. वे अपने पीछे एक परम्परा, एक नेतृत्त्व की श्रृंखला नही दे पाते. तो वे चीजें फिर असंभव लगने लगती हैं, जिन्हें महापुरुषों ने प्राप्त किया होता है. गाँधी मुझे बेहद सकारात्मक-सटीक उदाहरण जान पड़ते हैं. व्यक्तिगत जीवन कैसे जीयें, कम से कम गाँधी से बड़ा प्रेरक कोई नही हो सकता , क्योंकि गांधी जी ने ऐसी कोई बात नही कही, कहीं नही लिखी, जिसे प्रथम उन्होंने व्यवहार में ना लाया हो..!

श्याम जी, अंकित जी, गोविन्द जी एवं सभी मेरे मित्रों ..! मुझे सुधारिएगा. संभव है कि मुझ पर अन्यान्य आग्रह रहे हों, चाहूँगा कि चर्चा निर्णयों तक पहुंचे..! 


Shreesh Sep 3 '10
Message #42
जयन्तक जी, अवतारवाद में कोई बुराई नहीं जबतक हम उससे सकारात्मक रूप से प्रेरित हो पा रहे हों, यह रुढियों जबतक तब्दील ना हो जा रहा हो. किसी खास समय में किसी महापुरुषों द्वारा किये गए महान कार्य सहज ही मिथक बन जाते हैं. यह मिथक उस समाज के विकास में सहयोगी होते हैं. मूल्य बनाते हैं. थातियाँ उनपर निर्मित होती हैं..पर साथ ही साथ रुढियों की जगह भी बनने लगती है यदि अन्धानुकरण की वृत्ति लग जाती है तो...!

Shyam Juneja Sep 3 '10
Message #43
प्रिय श्रीश जी, सुव्यवस्था का अर्थ है व्यर्थ से मुक्ति ..आधुनिक परिवार व्यवस्था यदि समाज को व्यर्थ से मुक्त कर पा रही है तो मुझे क्या ऐतराज है ..लेकिन, यदि यह कूड़ा ही जमा कर रही है.. कूड़ा ही फैला रही है तो इसके विकल्प को लेकर गम्भीरता के साथ सोचा जाना चाहिए ... आज के परिदृश्य को देखते हुए सुव्यवस्था का कोई सूत्र मुझे दूर दूर तक नजर नही आ रहा .. लोकतंत्र के बावजूद इस कु-व्यवस्था के पीछे मुझे तो हर कहीं मैं और मेरा परिवार, मैं और मेरा धर्म ,मैं और मेरा जाने क्या क्या ही नजर आ रहा है ... आंकड़ों का मुझे ज्ञान नहीं लेकिन शादी-शुदा स्त्रिओं की बहुत बड़ी संख्या (जिनमें अधिकाँश बहुत पढ़ी-लिखी तथाकथित जागरूक भी हैं ) गंभीर किस्म के मनोविकारों की शिकार नजर आती हैं आप ब्लोग्स पर ही देखिये उनकी रचनाएँ देखिये उनकी बातचीत देखिये उनका व्यवहार देखिये ..आधुनिकतम होने की दावेदारी के बावजूद ..ऐसा नहीं की स्त्रिआं ही पुरुषों की भी अच्छी खासी संख्या (शायद मैं भी उनमें से एक होऊ )कई किस्म के मनोविकारों का शिकार हो कर जी रहे हैं .. जिस प्रकार के कम्यून की बात कर रहा हूँ उसमें तो बुनियादी बात ही गाँधी जी के स्वावलंबन और सादगी की है ... मेरा मानना है योग और ध्यान का अभ्यास हमारे सद्गुणों का विकास करने में सहायक हो सकते हैं इन सद्गुणों में मानसिक परिपक्वता मित्रता और विश्वास भी आते हैं
The Forum post is edited by Shyam Juneja Sep 3 '10

Govind Juneja Sep 3 '10
Message #44
श्रीश जी आपने ओशो का विडियो ध्यान से सुना होगा. आपको लगता है की उसकी बात तर्क संगत नहीं है और येही बात ज.कृष्णमूर्ति ने भी कही है की शादी बड़ी समस्याओं कि जड है.

विवाह का बंधन गलत नहीं अगर हम एक दुसरे को सुख/शांति/प्रेम दे सकें तो. पर एक दुसरे को अपनी कमियां देने का काम करना हो तो उसका नकारत्मक परिणाम सामने आता है.

राष्ट्र हो/समाज हो / परिवार हो जीवन दृष्टि तो व्यापक चाहिए अगर आज भी हमें अपनी समस्याओं का समाधान चाहिए तो सब भूल कर जीवन को समझना होगा और उसकी महत्ता का एहसास ही हमें हमारा सही मार्ग दिखा सकता है. आदमी नारी पे अत्याचार करे या पशुओं पे, पेड़ों पे करे या बच्चों पे, अपने से उपरवाले के स्थान से करे या अपने से निम्नस्तर पे जीने वाले से बात तो एक ही है. और नारी जो स्वार्थ दृष्टि सिर्फ अपने पर केंद्रित रह कर करे मेरा परिवार, मेरे बच्चे, मेरा बेटा, मेरी बेटी बाकि किसी के प्रति उसका दायित्व नहीं, बाकि किसी को उसका प्रेम नहीं चाहिए.

यानी की इस परिवार नामक जेल में अगर प्रेम को कैद करके रखना है तो इसकी कोई आवश्यकता नहीं. और अगरपरिवार को प्रेम का स्रोत बनना है तो इसका कोई विरोध नहीं.

केवल विवाह ही नहीं हमारे किसी भी रिश्ते को निस्वार्थ प्रेम चाहिए. पर यह संभव कैसे होगा हम सभी दूसरे को खुद से अलग मानते हैं और इसी मानसिकता के चलते आज हमने प्रक्रति को, पशुओं को नुकसान पहुंचाया है और अब इसके पाप को पूरी मनुष्यता ने भोगना है. 

हमारी कोई भी व्यवस्था शिक्षा/विवाह/निर्माण/रक्षा अगर हमारी संवेदनाओं को कुचलती है हमारी सहजता को नष्ट करती है तो उसको समाप्त होना ही चाहिए. 


Govind Juneja Sep 3 '10
Message #45
श्रीश जी आपकी बात से पूर्णता सहमत हूँ की मानसिक परिपक्वता की आवश्यकता है उससे पहले तो हमें यह भी ना एहसास होगा की गुलामी क्या है और स्वतंत्रता क्या.

Jayant k. Shrivastava Sep 4 '10
Message #46
भाई श्रीश जी, अवतारवाद में कोई बुराई नहीं है.प्रेरित होने में भी भला कोई बुराई हो सकती है ....? लेकिन "अवतारी " की आस में हम निठल्ले बैठे रहें अथवा वही हमारा बेडा पार करेगा ...की मानसिकता को आप क्या कहेंगे ....? और क्या यही हमारी मानसिकता नहीं है ....?

Jayant k. Shrivastava Sep 4 '10
Message #47
श्रीश जी ,आपकी एक पंक्ति की " मातृसत्तात्मक प्रणाली के लिए एक जरूरी नैतिक-मानसिक परिपक्वता की दरकार होती है" अर्थात स्त्रियों में इसकी घोर कमी होती है ...!अगर ये सही है तो इंदिरा गाँधी के बाद भारत में वो नेतृत्व क्यों नहीं उभर पाया जिसकी इस देश को ज़रूरत है ...या सोनिया के पहले कांग्रेस की स्थिति क्या थी ...? और सामूहिक स्तर से आपका अभिप्राय मेरी समझ में नहीं आया ...! वैसे सामूहिक स्तर पर तथाकथित पुरुष भी कहाँ परिपक्व हैं ...? और ये सोच ही क्या खतरनाक और पुरुष वादी नहीं है की स्त्रियों को अधिकार मिलने चाहिए ....जैसे ऐसा करके हम उनके ऊपर उपकार कर रहे हों .....अगर हम स्त्रियों को उनके हाल पर छोड़ दें ...अगर कर सकें तो इतना ही करें की उनकी टांग न खीचें ...तो यही उन पर बहुत बड़ा उपकार होगा .....!

Shyam Juneja Sep 4 '10
Message #48
जयन्तक जी, सुव्यवस्थित समाज के लिए बिना भेद-भाव के स्त्री-पुरुष दोनों की समान भागीदारी चाहिए ..मूल प्रश्न यह उठ रहा है कि क्या पारम्परिक परिवार व्यवस्था (जो आज की तारिख में लगभग छिन-भिन्न हो चुकी है या होने के कगार पर है) सुव्यवस्थित समाज कि रचना के लिए सक्षम है या नहीं? और इसके विकल्प के रूप में क्या किसी प्रकार के सुगठित, संघठित आत्म-निर्भर समूह की रचना सम्भव है ? यह तो पक्की बात है कि प्रति-व्यक्ति संसाधन समान हो तो समूह परिवार की तुलना में कहीं अधिक शक्तिशाली और क्रियाशील सिद्ध होगा .. बशर्ते कि एक लोकतान्त्रिक अनुशासन जो उसके भीतर से ही विकसित होकर उस समूह को संचालित कर सके ..मुझे लगता है इस बिन्दु पर भी विचार होना चाहिए

Shreesh Sep 4 '10
Message #49
जयंतक जी..!"श्रीश जी ,आपकी एक पंक्ति की " मातृसत्तात्मक प्रणाली के लिए एक जरूरी नैतिक-मानसिक परिपक्वता की दरकार होती है" अर्थात स्त्रियों में इसकी घोर कमी होती है ...!"

आपने बिलकुल ही गलत अर्थ ले लिया है. संभव है मेरी भाषा इतनी स्पष्ट न हो सकी हो. क्षमा करियेगा. स्त्री-पुरुष दोनों की बात कर रहा हूँ मै. और पितृ सत्ता की वकालत भी नही कर रहा हूँ मै. मै यहां सिर्फ युक्तियुक्ततता की बात कर रहा हूँ.

श्याम जी..!

*मेरा मानना है योग और ध्यान का अभ्यास हमारे सद्गुणों का विकास करने में सहायक हो सकते हैं इन सद्गुणों में मानसिक परिपक्वता मित्रता और विश्वास भी आते हैं.

*प्रति-व्यक्ति संसाधन समान हो तो समूह परिवार की तुलना में कहीं अधिक शक्तिशाली और क्रियाशील सिद्ध होगा .. बशर्ते कि एक लोकतान्त्रिक अनुशासन जो उसके भीतर से ही विकसित होकर उस समूह को संचालित कर सके.

आपकी इन दो बातों में चर्चा के निष्कर्षों का सार आ जाता है, मेरे विचार से. इन लक्ष्यों के आवश्यक गुणों को कैसे सहज जीवन का अंग बनायें इस प्रणाली, इस अभ्यास पर सोचना होगा. 

गोविन्द जी, 

*हमारी कोई भी व्यवस्था शिक्षा/विवाह/निर्माण/रक्षा अगर हमारी संवेदनाओं को कुचलती है हमारी सहजता को नष्ट करती है तो उसको समाप्त होना ही चाहिए. 

हाँ बिलकुल, सहमत हूँ आपसे. किन्तु विकल्पहीन होकर नहीं. आइये सहज अनुकरणीय विकल्पों के लिए श्याम जी से सुझाव लेते हैं. या फिर कोई भी मित्र सुझाव दें...!

Govind Juneja Sep 4 '10
Message #50
मेरे विचार से सबसे बड़ी समस्या को जन्म मिलता है जब हम प्रकृति के विपरीत चलते हैं.

जैसे की हमारी मान्यता थी कि विद्यार्थी जीवन की आयु २६ वर्ष, गृहस्थ की ५० वर्ष और उसके बाद वानप्रस्थ, इसको हमें फिर से मान्यता देनी होगी. और हमारे वानप्रस्थ लोग जीवन मूल्यों को सुधारने का कार्य करें और अपना अध्यात्मिक जीवन जियें. इससे उनका सही निर्देशन आने वाली पीड़ी को मिल सकता है. हमारे धर्म में तो वैसे ही खज़ाना भरा पड़ा है इसका जितना दोहन किया जाए कम है और हो सकता है यह वानप्रस्थ समुदाय आने वाली पीड़ी का चरित्र निर्माण करने में अपना महत्वपूर्ण योगदान दे सके. माता-पिता जबतक बच्चों के भविष्य के ठेकेदार बने रहेंगे तो नयी पीड़ी अपने अस्तित्व को नहीं जान पायेगी और भविष्य को नयी दृष्टि से नहीं देख पायेगी. मै बेटा हूँ तो पिता का गुलाम, मै बहु हूँ तो सास की गुलाम, मै बेटी हूँ तो माँ की गुलाम, पढाया लिखाया पर अपने विवेक को कैसे अपने लिए प्रयोग करना है इसका रास्ता किसी ने नहीं बताया और ना ही इसके लिए अपनी सहमति जताई. और फिर मूल कारण बन जाता है डर डर कर जीना. यह ना हुआ तो क्या होगा और यह हो गया तो क्या होगा बस इसी सफर की यात्रा हम सब करते हैं. यह कारण बन जाता है डर से निर्मित हुए समाज का.

शिक्षा/चिकिस्ता व्यवस्था सब के लिए समान होनी चाहिए. और यह अर्थ से मुक्त सेवा से युक्त होनी चाहिए.

रोज़गार में सरकारी नौकर/ निजी उद्योग वाला /private naukri/ शिक्षक/किसान/सैनिक Technician / Doctor/ Engineer/Lawyer/ Any Professional इनमें आय का ऐसा संतुलन हो की समाज केवल धन पर केंद्रित ना होकर सेवा पर केंद्रित हो और उनकी आय में ज़्यादा अंतर ना रहे. ऐसा ना लगे की कोई वर्ग शोषण कर रहा है और कोई शोषित हो रहा है. और अपने कार्य में श्रेष्ठ व्यक्ति को अन्य को शिक्षित करने व रोज़गार में लाने का दायित्व मिलना चाहिए.

पता नहीं कैसे लगें आपको यह विचार..





Shreesh Sep 4 '10
Message #51
प्रिय गोविन्द जी, आप आश्रम परंपरा का स्वस्थ निर्वहन चाहते हैं..आपकी टिप्पणी के प्रथम अंश से यही संकेत निकलता है. 

जो आपका दूसरा अंश है , ऐसा ही लक्ष्य साम्यवाद का है. जिसे वैज्ञानिक ढंग से सर्वप्रथम मार्क्स ने रखा था. क्यूबा, वियतनाम, चीन, रूस की आर्थिक-सामाजिक प्रगति देखते हुए आजादी के बाद नेहरु जी ने भी भारत में social-democratic शासन पद्धति की नींव रखी थी. 

आपके विचार गोविन्द जी, हमेशा की तरह युक्तियुक्त लगे. कई बार एक विचार में कई और विचार छुपे होते हैं..!

अंकित ............The Real Scholar Sep 5 '10
Message #52
कुछ तकनीकी सस्याओं के कारण अनुपस्थित था .....चर्चा की गति देखकर हर्ष हो रहा है

Jayant k. Shrivastava Sep 5 '10
Message #53
अतीत की ओर लौटो ......व्यवस्था को बदल डालो ......परिवार,शिक्षा ,विवाह ....सभी संस्थाएं मृत प्राय: हो गयीं हैं ...! लेकिन बदलना क्या संभव है या की आसान है ..? और क्या गारंटी है की बदलने से सब ठीक हो जायगा ...! क्या अतित की ओर लौटना कभी संभव हुआ है ...? समय का चक्र उल्टा नहीं घुमा करता ..बंधुओं ...! तो फिर समाधान कुछ नहीं है अगर है तो क्या है ...? .सबसे पहले हमें यह समझना और स्वीकार करना होगा की ...संस्था .व्यवस्था ,परंपरा नियम कायदे आदि अपने में गलत नहीं होते ...हाँ उनमे कमी वेशी हो सकती है ...सुधार की गुंजायश हो सकती है ..उसका निरंतर प्रयास चलता रहता है और चलता रहना चाहिए ...! कोई भी चीज़ अपने में पूर्ण नहीं है ....! यदि ऐसा होता तो लोकतंत्र हमारे यहाँ सफल नहीं है अथवा उतना सफल नहीं है जितना होना चाहिए ...लेकिन ब्रिटेन ,अमेरिका आदि के बारे में ऐसा नहीं कह सकते .....! मार्क्सवाद ,साम्यवाद भी पूर्ण नहीं है और लोकतंत्र भी कमियों से मुक्त नहीं है ...! इसे तरह परिवार नामक संस्था इतनी बुरी नहीं है ...फिर पश्चिम देश हमारी ओर आकर्षित हो रहे है उन्हें अपनी व्यवस्था दोषपूर्ण लगती है ..! क्या हम कबीलाई युग में लौट कर जा सकतें है ....? इसका विकल्प क्या हो सकता है ...? वैसे भी संयुक्त परिवार से एकल परिवार तक तो हम आ ही गए हैं ..! ....और योग ध्यान इसमें हमारी सहायता कर सकता इसमें भी मुझे संदेह है .....योग ध्यान से कमर का दर्द .रीड की हड्डी ज़रूर सीधी हो सकती है लेकिन मानसिक परिवर्तन संभव नहीं है ..मानसिक परिवर्तन विचारों से होता है और विचार निर्मित होते है अध्ययन ,अध्यवसाय ,चितन,मनन से ..शिक्षा से ..और सर्वोपरि उदारता से.. उदारता आती है ..संवेदना से, दर्द से .पीड़ा से .! बूंद बूंद से समुद्र की तर्ज पर व्यक्ति व्यक्ति से समाज बनता है और व्यक्ति सुधरेगा तो समाज भी ....यह प्रक्रिया भी लंबी ,उबाऊ ,कष्टसाध्य है ...!फिर वही बात जो मैं प्राय: महसूस करता हूँ की यह ..."सभ्यता का संकट है ..." न की व्यवस्था का ...संस्था का ...!

Shyam Juneja Sep 5 '10
Message #54
सभ्यता जब है ही नहीं तो उसका संकट कैसा ? आपको लगता है आदमी सभ्य हो चुका है ? कबीलाई युग से संयुक्त परिवार और फिर एकल परिवार एक यात्रा है.. इसके आगे भी तो चलना है कुछ बेहतर जीवन कि तलाश में ...हिंसा और काम जीवन की मूल-भूत प्रवृतियाँ हैं ..आदमी को छोड़ शेष प्राणी जगत के सञ्चालन में अपरिहार्य हैं .. लेकिन आदमी में सम्भावना है हिंसा से मुक्त होकर अहिंसा में उतर सके .. काम को प्रेम में विकसित कर सके ...मैंने पहले भी कहीं लिखा है हमें पुराने अनुभ्वोंसे सीख कर नए का सृजन करना इसके लिए इसके लिए बहुत जरूरी है कि हम पूर्वग्रहों से मुक्त होकर चिंतन करने में समर्थ बने ..हमें किसी से भी दूरी नहीं बनानी होगी रामदेव जी का योग, गाँधी जी की सादगी और स्वावलंबन और अहिंसा (बहुत कुछ ) ओशो का मुक्त अध्यात्मिक चिंतन .. माओवाद मार्क्स वाद की संघर्ष चेतना जरूरत पड़े तो इस्लाम और ईसाइयत से भी .. यानि एक काम आपके सामने है कबाड से एक मशीन तैयार करने की जो हमें सभ्यता कि मंजिल तक ले जा सके ..मैं भूल गया आज के कॉर्पोरेट जगत से भी बहुत कुछ ग्रहण किया जा सकता है ..

अंकित ............The Real Scholar Sep 5 '10
Message #55
परिवार की आवश्यकता पर ही बात ही रही है तो ............सबसे पहले तो मैं एक बात पुनः बोलना चाहूँगा की किसी भी प्राणी के अस्तित्व के लिए ४ चीजें प्राथमिक आवश्यकता हैं १ भोजन २ सुरक्षा३ निद्रा (rest)4 procreation अब अगर आप परिवार को हटा देंगे तो सुरक्षा ही नहीं मिल पायेगी किसी को , परिवार इस लिए चाहिए होता है क्यूंकि मूल रूप से समाज बर्बर होता है , समाज की आवश्यकता इस लिए क्यों की संस्कृतियाँ बर्बर होती हैं संस्कृतियों की आवश्यकता इसलिए क्यों की गद्राज्य बर्बर होते हैं और रास्त्रों की आवश्यकता इसलिए क्यों की कोई भी प्राणी मूल रूप से बर्बर होता है |

परिवार नाम की संस्था तो तब से चली आ रही है जब से आदमी दो पैरों वाले जानवर से मनुष्य बना है और परिवार की उपस्थिति उसिप्रक्रिया का उत्पाद अहि ..अब अगर प्रक्रिया पर्निती तक नहीं पहुची है या रुक गई है तो इसका यह मतलब तो नहीं की उसे बंद कर दिया जाये |

वेदों की कुछ ऋचाओं में लिखा है की "पुराने काल में एक ऐसा समय था जब ना राजा था ना प्रजा थी और सभी परस्पर सौहार्द के भाव से रहते थे " परन्तु परिवार की अनुपस्थिति की बात नहीं कही गई अगर परिवार को हटा दिया गया तो मनुष्य (या दो पैरों वाला पशु) पुनः जंगलों में रहने को विवश रहेगा

Shreesh Sep 6 '10
Message #56
श्याम जी, विचारियेगा, कुछ पूर्वाग्रह तो जैसे आपको भी है इस 'परिवार' को लेकर...:)

अंकित ............The Real Scholar Sep 6 '10
Message #57
अब शायद इस चर्चा को विराम देना चाहिए परन्तु यह विराम है विश्राम नहीं और जीस प्रकार से यह चर्चा चाकी है मुझे लगता है की "नेति नेति .......... " ही सर्वोत्तम विराम हो सकता है 

हरी अनंत हरी कथा अनंता

Shyam Juneja Oct 4 '10
Message #58
क्या इस चर्चा को कुछ और आगे ले जाया जा सकता है ... कुछ महत्वपूर्ण बातें छूटती सी लग रही हैं !

Shreesh Oct 4 '10
Message #59
जैसे श्याम जी...कुछ और बातें कौन सी...?

Shyam Juneja Oct 10 '10
Message #60
थोडा समय दो ...बहुत सी चीज़ों में एक साथ उलझ गया हूँ .. मुख्य रूप से आपके वक्तव्यों पर ही बात करनी है ..और अंकित जी की कुछ बातें जिनकी और उन्होनें दो -तीन बार इशारा किया है.


sarvesh tripathi Oct 20 '10
Message #61
क्या देश आज़ाद है ? ,इसके सन्दर्भ में अभी तक जो भी चर्चा हुई है वास्तव में मुझे बहुत ज्ञानवर्धक लगी .... दार्शनिक चिंतन के परिप्रेक्ष्य में स्वतंत्रता को परिभाषित करने का जो प्रयास ,जुनेजा जी ने किया है,उससे बहुत हद तक सहमत हूँ .....बतौर दर्शनशास्त्र का शोधार्थी होने के नाते ,अभी तक जो मैंने अध्ययन किया है , इस निष्कर्ष पर पहुंचा हूँ कि ,ज्ञान विशेष तौर पर दार्शनिक ज्ञान ,स्वतंत्रता के लिए न केवल अनिवार्य शर्त है बल्कि मोक्ष (दुखों से मुक्ति तथा असीम आनंद कि प्राप्ति ) को प्राप्त करने का श्रेष्ठ माध्यम भी है .......किन्तु मूल प्रश्न यह है कि जिस देश कि आधी जनसंख्या निरक्षर हो वहां पर आज़ादी को कोरा दार्शनिक चिंतन के परिप्रेक्ष्य में समझा पाना निहायत ही कठिन है .....फिर भी भक्ति का मार्ग खुला है जिसके जरिये आम जनता को उसके मंजिल तक पहुँचाया जा सकता है ,ज़रूरत बस दीपक जलाने की है उजाला तो अपने आप हो जायेगा ......
The Forum post is edited by sarvesh tripathi Oct 20 '10

Shreesh Feb 12 '11
Message #62
ओह आज फिर इस चर्चा को पढ़ गया....बेहतरीन सम्मेलन बन पड़ा है......!

फेसबक की टीपें:

Jitendra Lakhera · 3 mutual friends
विस्मय और जिज्ञासा, जीवन दृष्टि को विकसित करने वाले तत्व ही नही हैं; अपितु, यांत्रिकता की यंत्रणा से, किसी सीमा तक बचाए रखने के उपक्रम भी हैं ..... सच ! बहुत ही सार्थक ज्ञानवर्धक चर्चा .. 'जय हो'
Shyam Juneja ... Shreesh K. Pathak ...क्या बात है प्रिय श्रीश..समय के अनुकूल चर्चा है ...लेकिन, लगता है स्वतंत्रता के प्रश्न को लेकर लोगों की अधिक रूचि नहीं है ..नहीं तो प्रश्नों का एक सैलाब उमड कर आना चाहिए था ! ...जो भी हो.. आज ही विजयदान देथा की कुछ पंन्क्तिया पढ़ रहा था... "संस्कारों का दावा कितना खूंखार और खतरनाक है ! भेडिये का जो दावा भेड़ पर है, शेर का जो दावा हिरन पर है और बाज़ का जो दावा कबूतर पर है, ठीक वैसा ही दावा मनुष्य पर संस्कारों का है ! इनके खूनी पंजों से वह बच नहीं सकता ! "...ऐसी ही बात जे. कृष्णमूर्ति ने भी कही है... "आस्थाएं ही तो हत्यारी हैं" ...जब तक मनुष्य संस्कारबद्द मानसिकता और व्यर्थ आस्थाओं से स्वयं को मुक्त नहीं कर पाएगा तब तक कोई समाधान सम्भव नहीं दिखता !
Vasundhara Pandey अद्भुत , ये केवल बाक्स मेँ लिखी एक चर्चा नही है , अगर हमारे बीच ऐसे लेख रखे जाते हैँ तो हम सब कुछ तो सबक लेँगेँ
कल से अनगिनत बार पढ चुकी हूँ और पढ़ने की लालसा खत्म नही हो रही ।
वार्तालाप का एक एक शब्द कई -कई बूँद अमृत समान है ।
शेयर करने के लिये शुक्रिया आपको ... !!
Abhishek K. Arjav breathe taking reading.....i m amazed ! where was i when all such beautiful things were happenings!!!!
Abhishek K. Arjav अद्वैत अतियों से मुक्त है क्योंकि युक्त है .. द्वैत में अतियों का द्वंद्व है इस जरा से फर्क के साथ .....कृपया इन गर्भिणी पंक्तियों को थोड़ा विस्तार दें। Shyam Juneja
Shreesh K. Pathak Priya Arjav.....ye charcha to adhuri hai....abhi aur vichar maang rahi ....aap ise ansunaaa naa karen.
Abhishek K. Arjav कभी कभी सुनना बेहतर होता है।
Shreesh K. Pathak Smart people are really smart...
Shyam Juneja प्रिय Abhishek K. Arjav लहर थी आयी और निकल गयी ...::)

Shyam Juneja ...प्रिय श्रीश जी,...क्या आपको नहीं लगता कि "परिवार का प्रश्न" एक ठहराव...एक जबर्दस्त मोह का कारण बना हुआ है.. जो एक सुव्यवस्थित सभ्यता के विकास में अवरोध बना हुआ है ... मेरी एक रचना की कुछ पंक्तियाँ हैं

"ईश्वर प्रयोगधर्मिता का ऐश्वर्य है
और
हर ठहराव
ईश्वर के खिलाफ जाता है "


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