नवोत्पल गुरुवारीय विमर्श

 


Wednesday, June 14, 2017

#८# दिल की डायरी: मन्नत अरोड़ा

दिल की डायरी: मन्नत अरोड़ा 

न्याय और कानून जैसा कुछ नहीं रहा अब।बस सावधान इंडिया और सी.आई. डी में ही एक बाल से भी मुजरिम तक पहुँच जाते हैं।यहाँ सारे सबूत भी रख दो तो पुलिस इन्क्वायरी के बहाने रिश्वत की ताड़ में रहती है। Lower courts में सिर्फ 5% ही बड़ी किस्मत से अगर आपका पासा सही मान लिया जाए तो जीत जाओगे केस पर आगे high court भी हैं अपील को।वैसे lower court में कोई ही मुजरिम साबित हो पाता है।

वकील केस लेते हुए कुछ बाद में कुछ हो जाते हैं।

हर जगह सिर खपाया। S.S.P.,D.I.G ,Human Rights etc.कितनी ही ऑनलाइन complains भी की कि किसी तरह arrest से बचा जा सके।जहाँ जिस वकील ने जो राय दी,गए।इसी दौरान नेट पे अलग-2 id भी खोलीं जहाँ ज्यादातर कुछ न कुछ सर्च ही करती थी। C.B.I. में भी onl9 ही लॉकर illegaly ऑपरेट होने की कंप्लेन लिखवाई। कॉल भी आयी पूछने कि क्या मामला है।जब बताया तो कहने लगे कि यह तो घरेलू मामला है।मैंने कहा कि लॉकर बैंक से illegaly ऑपरेट हुआ है।घर से चोरी नहीं हुई।क्या बैंक की कोई जिम्मेदारी नहीं थी।हम लोगों की कंप्लेन पुलिस दर्ज नहीं कर रही।और चोरी करने वाले हमको धमका रहे हैं।आखिर और कौन से मामले आप लोग देखते हो?फ़ोन काट दिया गया उधर से।फिर नहीं आया कोई।

Anticipatory bail भी opposition ने वकील से मिलके ख़ारिज करवा दी।कहीं जज तो कहीं वक़ील,सबके दाम हैं।बस आपको मालूम होने चाहिए कितने और कहाँ।अब इतनी समझ होती तो इस फेर में क्यों पड़ते।इतने ऑफर्स compromise के आ रहे थे कि केस वापिस ले लो आगे कुछ नहीं होगा।आराम से घर बैठो।पर दिल में था कि जो यह करवा रहे हैं सजा दिला के रहेंगे।मीडिया में गए तो पूछने लगे कि कितने लोग तुम्हारे पीछे हैं यां किसी ख़ास ने भेजा है क्या?

चंडीगढ़ इस f.i.r. की quashing भी लगायी। पर आखिर डेल्ही चंडीगढ़ सब घूम घाम के वापिस ही आना पड़ा क्योंकि नीचे से ही सब खराब था तो ऊपर से क्या ख़ाक ठीक होता। 
आखिर हमने कोर्ट में surrender किया। वहां भी bail ख़ारिज कर दी गयी। यूँ तो मर्डर पे भी on the spot bail मिल जाती है बस जज का rate पता हो आपको वैसे किसी भी केस में नहीं मिलती। वहां हमको 2 दिन का पुलिस रिमांड और फिर judicial custody यानी जेल भेजा जाना था।रिमांड बाद में 2 दिन और बढ़ा दिया गया opposition की कृपा से।
पता नहीं क्या बरामद करना था हमसे इन्होंने।

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"लिख-लिख के जो कर्ज़े उतार रहे हैं
ऐसा भी जिंदगी क्या तेरा उधार रहा...–मन्नत"
"यूँ ही तो मिले थे हम के शुरूआती पन्ने–बहकते ख्यालों का हक़ीक़ती क़त्ल और जिंदगी के हिसाब बाकी किताब।
जैसे कहूँ यां वैसे– कुछ हुआ भी नहीं...
छूट जाता है बहुत कुछ सफ़र में जाने-अनजाने।

मेरे मम्मी-पापा बहुत दुःखी थे हमारे इस तरह के हालात पे।
कहाँ पापा ने कहीं जाने नहीं दिया था और अब मैं कचहरी तो क्या जेल भी जा रही थी।
चाहे कितने भी सख्त स्वभाव के थे पापा।रसोई क्या चली जाती थी।बाहर बुला लेते थे कह के कि हाथ जला लेगी।मम्मी चाहे कलपती थी कि शादी में साथ नौकर भेजोगे क्या?
सभी लड़का पसंद कर लेते मुझे बस हाँ कहने को ही बुलाना होता था तो चुपके से किसी से मैसेज करवा देते कि नहीं पसंद तो बस न बोल देना।बाकी मैं संभाल लूँगा। शादी के बाद एक बार उनको kinectic honda पे अपने पीछे बैठा के कहीं जरूरी क्या लेके गयी सारा रास्ता यही पूछते रहे कि रास्ता मालूम भी है।चला भी लेगी के नहीं।हालांकि कॉलेज अकेले ही आती-जाती थी पर उसके अलावा कोई और रास्ता मुझे मालूम भी होगा इस पे उनको doubt ही था। वो भी बहुत पहले मेरी तरह सारे हालात समझ चुके थे।यूँ तो बहुत कम ही बात होती थी हमारे बीच पर बार-2 कह चुके थे कि अपने पति को समझा किसी तरह।बहुत बार समझाने पे भी कुछ असर ही नहीं था तो क्या करती।लड़ाई करती यां मायके जा के बैठ जाती और बस यही उसकी बहनें चाहती थी।
कोई मायके से समझाए तो interfere का इल्ज़ाम।न पूछे तो परवाह ही नहीं किसी को।बस यहीं दिमाग अटका रहता हो जिस आदमी का।उस का कोई करे भी तो क्या?


वैसे भी वक़्त के साथ अब पहले वाले पापा तो रहे नहीं थे। डायबिटीज के कारण बीमार रहने लगे थे।मेरा मन भी नहीं होता था अपनी कोई परेशानी बताने को।

(क्रमशः)

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